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अनेकान्त
(काल्गुन पौर निर्वाणसं० २५५
चित्त होकर उनको पापमें ही पड़ा रहने देना चाहता वह इसके बाद मिध्यादृष्टि हो जाता है और फिर दोहै, वह तो आप ही धर्म अनजान और दीर्घ संमारी बारा संभलने से ही सम्यक श्रद्धानी होता है। है। धर्मका द्वार तो सब ही के लिये खुला रहना चाहिये धर्मका स्वरूप समझाते हुवे वीर भगवान्ने यह और जितना कोई ज्यादा पापी है उतना ही ज्यादा भी बताया था कि, धर्म कोई नौकरी नहीं है जो किसी उसको धर्मका स्वरूप ममझाने की कोशिश करना की आज्ञाओंको पालन करनेसे ही निभ सकती हो या चाहिये । यही वीर भगवानकी कल्याणकारी शिक्षा थी, फौज़की कवायद नहीं है जो शरीरके विशेषरूप साधन जो सर्व प्रिय हो जाती थी।
से आ सकती हो । या कोई कशता नहीं है जो शरीरको वीर भगवान्ने यह भी बताया था कि जिस तरह आग तपाने, तरह तरहका कष्ट पहुँचाने, दुबला पुराना बीमार इलाज कराता हुश्रा कभी २ बद परहेजी पतला और कमजोर बनाने या धूपमें सुखाने और भी कर जाता है और दवा नहीं खाता है, जिमसे उम भूखा मारनेसे बन जाता हो। धर्म तो वस्तुके असली की बीमारी फिर उमर पाती हैं और कभी २ तो पहले स्वभावका नाम है । जीवका असली स्वरूप ज्ञानानन्द से भी बढ़ जाती है तो भी घरवाले उसका इलाज नहीं है, जिसमें बिगाड़ पाकर और राग द्वेष और विषयछोड़ देते हैं किन्तु फिरसे इलाज शुरू करके बराबर कषायके उफान उठते हैं। इस कारण जिस जिस उस बीमारीको दूर करनेकी ही कोशिश में लगे रहते हैं। तर्कीबसे विषय-कषायोंका जोश ठण्डा होकर जीवका उस ही प्रकार अगर कोई धर्मात्मा अधर्मी हो जावे, राग-द्वेष दूर हो मके वह ही धर्म-साधन है। वह ही ऊँचे चढ़कर नीचे गिर जावे तो फिर उसको समझा- साधन अपनी अपनी अवस्थाके अनुसार जैसा जिसके बुझाकर तसल्ली-तशफफी देकर और ज़रूरी सहायता लिए ठीक बैठता हो वैसा ही उसको करने लग जाना
वाकर धर्ममें लगा देना चाहिये। यह स्थितिकरण चाहिये। वीर भगवान्ने भी भिन्न भिन्न माधन बताये भी धर्म श्रद्धानका एक अङ्ग है, जो सच्चे श्रद्धानीमें हैं । गृहस्थियों के ११ दर्जे करके उनके अलग अलग होना जरूरी है। गृहस्थियोंको नो अपने धर्मस गिर साधन सुनाये हैं और १४ गुणस्थानोंका कथन करके जाने के बहुत ही अवमर आने है। इस वास्तै उनको मुनियोंके वास्ते भी ध्यान आदिके कई दर्जे बताये हैं। तो स्थिनिकरणके द्वारा फिर धर्ममें लगा देना फिर भी यह कथन दृष्टांतरूप बताकर हर एकका साधन जरूरी है। किन्तु मुनि भी यदि धर्मसे भ्रष्ट हो जावे तो उसकी ही अवस्था पर छोड़ा है । इस प्रकार उसको भी फिर ऊपर उठाकर धर्ममं लगा देना चाहिये। माधन तो मबका भिन्न भिन्न हो गया परन्तु साँचा उसका छेदोपस्थापन हो जाना चाहिये। अगर ज्यादा मबका एक यह ही होना चाहिये कि राग-द्वेष दूर होकर ही भ्रष्ट हो गया हो तो दोबारा दीक्षा मिल जानी हमारा जीवात्मा अपने असली स्वभावमें आ जाय । चाहिये। जिस तरह बच्चा गिर गिर कर और उठ उठ प्रत्येक मतके चलाने वालोंने और समय-ममयके कर ही खड़ा होना सीखता है उस ही प्रकार संसारी लीडरोंने अपने समयके मांसारिक रीति रिवाजोंमें जीव भी धर्म ग्रहण करके बार बार गिरकर और फिर भी अपने समय के अनुसार कुछ कुछ सुधार करना संभलकर ही पक्का धर्मात्मा बनता है। मातवें गुण जरूरी समझा है और उनको पक्का बनाने के लिये स्थान से छटे में और छटेसे सातवेमें तो मुनि बार-बार धर्म पुस्तकोंमें भी उनको लिख देना ज़रूरी समझा है। ही गिरता और चढ़ता है और ग्यारहवें गुणस्थान पर जो होते होते धर्मके ही नियम बन जाते हैं, और लकीर चढ़कर तो अवश्य ही नीचे गिर जाता है। तब गिरे के फकीर दुनियोके लोग भी अपने प्रचलित रीति हुयेको फिर ऊपर न उठने दिया जाय तो काम किस रिवाजोंको धर्म के अटल नियम मानने लग जाते हैं। तरह चले ? सबसे पहले जीवको उपशम सम्यक्त्व ही इस प्रकार सांसारिक रीति-रिवाज धर्मका रूप धारण होता है, जो दो घड़ोसे ज्यादा नहीं ठहर सकता है। करके धर्ममें मिल जाते हैं और यह भेद करना मुश्किल