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________________ गोत्र-विचार [असा दुपा, अब मैं 'जैन हितैषी' पत्रका सम्पादन करता था, तब मैंने 'गोत्र विचार' नामका एक लेख विसकर उसे १५ वर्षके 'जैन हितैषी' के अंक नं० २-३ में प्रकाशित किया था । आज कल जब कि गोत्र कर्मावित ऊँच-नीचताकी चर्चा जोरों पर है और गोम्मटसारादिके गोत्र लक्षणोंको सदोष बतलाया जा रहा है , तब उक्त लेख बहुत कुछ उपयोगी होगा और पाठकोंको अपना ठीक विचार बनाने में मदद करेगा, ऐसा समझकर, आज उसे कुछ संशोधनादिके साथ पाठकोंके सामने रक्खा जाता है ] 'मम्पादक' __गोत्र-विचार उनका उपदेश माननेके कारण, अनेक गोत्र केवल सन्तान क्रमसे चले आये जीवोंके आचरण नगर-प्रामादिकोंके नाम पर उनमें निवास करनेके विशेषका नाम 'गोत्र' है । वह आचरण ऊँचा कारण और बहुतमे गोत्र केवल व्यापार पेशा और नीचा ऐसा दो प्रकारका होनेसे गोत्रक भी अथवा शिल्पकर्मके नामों पर उनको कुछ समय मिर्फ दो भेद हैं-एक 'उच्च-गोत्र' और दूसरा 'नीच तक करते रहने के कारण पड़े हैं। और भी अनक गोत्र' ऐमा गोम्मटसारमें श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त. कारणोंमे कुछ गोत्रोंका नामकरण हुआ जान चक्रवर्ति द्वारा जैन मिद्धान्त बतलाया गया है। पड़ता है, और इन मय गोत्रों की वह मन स्थिति जैन सिद्धान्तमें अष्टकर्मों के अन्तर्गत 'गोत्र' नामका बदल जाने पर भी अभी तक उनकं वही नाम चले एक पृथक् कर्म माना गया है, उसीका यह उक्त जाते हैं-ममान आचरण होते हुए भी जैनियोंक आचार्य प्रतिपादित लक्षण अथवा स्वरूप है। गोत्रोंमें परस्पर विभिन्नता पाई जाती है । अनः परन्तु जैनियोंमें अाजकल गोत्र विषयक जिम जैनियोंके लिये गोत्र मम्बन्धी प्रश्न एक बड़ा ही प्रकारका व्यवहार पाया जाता है वह इम मिद्धांत जटिल प्रश्न है और इमलिये उसपर विचार चलने प्रतिपादित गोत्र-कथनसे बहुत कुछ विलक्षण की जरूरत है। अर्मा हुआ 'मत्योदय' में 'शूद्रमालूम होता है। जैनियोंके गोत्रोंकी संख्या भी मुक्ति' शीर्षक एक लेख निकला था, जो बादमे मैंकड़ों पर पहुँची हुई है। उनकी ८४ ज्ञानियोंमें पुस्तकाकारमे भी छपकर प्रकाशित हो चुका है । प्रायः मभी जातियाँ कुछ न कुछ मंख्या प्रमाण उसमें गोम्मटमार प्रतिपादित गोत्र कमके स्वरूप गोत्रोंको लिये हुये हैं। परन्तु उन मब गोत्रोंमें पर कुछ विशेष विचार प्रकट किये गये हैं। उन 'उच' और 'नीच' नामके कोई गोत्र नहीं हैं; और विचारोंको-लेखक केवल उतने ही अंशकोन किसी गोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे पाठकोंक विचारार्थ यहाँ उद्धृत किया जाता है । जाते हैं। अनेक गोत्र केवल ऋषियोंके नाम पर आशा है विज्ञ पाठक एक विद्वान्के इन विचारोंपर देखो, 'अनेकान्त' की द्वितीय वर्षकी फाइल सविशेष रूपसे विचार करनेकी कृपा करेंगे और और उसमें भी 'गोत्र लक्षणोंकी सदोषता' नामक लेख, यदि हो सके तो अपने विशेष विचारोंसे सूचित जो पृष्ठ ६८० पर मुद्रित हुआ है। करनेको भी उदारता दिखलायेंगेः
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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