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________________ श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि वर्ष ३, किरण २ ] १२ गुणरत्नसूरि-ये पन्द्रहवीं शताब्दिमें हुए हैं । इन्होंने हरिभद्रसूरि रचित "ट-दर्शन समुच्चय" पर १२५२ श्लोक प्रमाण " तर्क - रहस्य - दीपिका " नामक एक भावपूर्ण टीका लिखी है। इसमें भी प्रट्-दर्शनोंके सिद्धान्तों पर अच्छा विवेचन किया गया है । दार्शनिक ग्रंथोंकी कोटि में इसका भी अपना विशेष स्थान है । १३ उपाध्याय यशोविजय जी - जैन-न्याय साहित्य रूप भव्य भवनके पूर्ण हो जाने पर उसके स्वर्ण कलशसमान ये अन्तिम जैन न्यायाचार्य हैं। ये महान् धाव और साहित्य-सृजनमं श्रद्वितीय याहत गतिशील थे। इनकी लोकांतर प्रतिभा और श्रगाध पांडित्यको देखकर काशीकी विद्वत् सभा ने इन्हें 'न्याय-विशारद' नामक उपाधिमे विभूषित किया था । तत्पश्चात् सौ ग्रन्थोंका निर्माण करने पर इन्हें 'न्यायाचार्य' का विशिष्ट पद प्राप्त हुआ था और तभी ये "शत ग्रन्थोके निर्माता" रूपसे प्रसिद्ध भी हैं। तर्क भाषा, न्यायलोक, न्यायखंडस्वाद्य, स्याद्वाद, कल्पलता आदि अनेक न्यायग्रंथ आप द्वारा रचित पाये जाते हैं। इनका काल १८वीं शताब्दि है । इन उल्लिखित ग्राचार्योंके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन नैयायिक ग्रंथकार हो गये हैं; किन्तु भयसे इस लेख मं कुछ प्रमुख प्रमुख श्राचार्यों का ही कथन किया जा सका है । उपाध्याय यशोविजय जीके पश्चात् जैनन्याय साहित्य के विकामकी धारा रुक जाती है और इस प्रकार चौथी शताब्दि के अन्तसे और पांचवीं के प्रारम्भ मे जो जैन न्याय-साहित्य प्रारम्भ होता है, वह शताब्दि तक जाकर समाप्त दो जाता है । उपसंहार संपूर्ण जैन न्याय-ग्रंथों में पढ़-दर्शनोंकी लगभग सभी मान्यताओंका स्याद्वादकी दृष्टिसे विश्लेषण किया गया है । और अन्तमें इसी बात पर बल दिया गया है कि अपेक्षा विशेषसेनयन्दृष्टिमे सभी सिद्धान्त सत्य हो सकते हैं । किन्तु वे ही सिद्धान्त उम दशामें असत्य रूप हो जायगे; जबकि उनका निरुपण एकान्त रूपसे १८१ एक ही दृष्टिसे किया जायगा । न्याय-ग्रंथों में वर्णित कुछ मुख्य मुख्यवादोंके नाम इस प्रकार है: - सामान्यविशेषवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद श्रागमवाद, नित्यानित्यवाद, श्रात्मबाद, मुक्तिवाद, शून्यवाद, श्रद्वैतवाद, अपोहवाद, सर्वश्वाद, श्रवयवश्रवयविवाद, स्त्रीमुक्तिवाद, कवलाहारवाद, शब्दवाद, वेदादि अपौरुषेयवाद, क्षणिकवाद, प्रकृतिपुरुषवाद, जडवाद अर्थात् श्रनात्मवाद, नयवाद, प्रमाणवाद, अनुमानवाद और स्याद्वाद इत्यादि इत्यादि । ज्यों ज्यों दार्शनिक-संघर्ष बढ़ता गया त्यों त्यो विषय में गंभीरता श्राती गई । तर्कोंका जाल विस्तृत होता गया। शब्दाडम्बर भी बढ़ता गया । भाषा सौ और पदलालित्य की भी वृद्धि होती गई। अर्थ गांभीर्य भी विषय-स्फुटता एवं विषय-प्रौढ़ताके साथ साथ विकासको प्राप्त होता गया । अनेक स्थलों पर लम्बे लम्बे समामयुक्त वाक्योंकी रचनासे भाषाकी दुरुहता भी बढ़ती गई । कहीं कहीं प्रसाद-गुण-युक्त भाषाका निर्मल स्तोत्र भी कलकल नाद प्रवाहमय हो चला । यत्रतत्र सुन्दर और प्रांजल भाषाबद्ध गद्य प्रवाह में स्थान स्थान पर भावपूर्ण पद्योंका समावेश किया जाकर विषयकी - कता दुगुनी हो चली। इस प्रकार न्याय - साहित्यको सर्वाङ्गीण सुन्दर और परिपूर्ण करनेके लिये प्रत्येक जैन न्यायाचार्यने हार्दिक महान् परिश्रमसाध्य प्रयास किया है और इसलिये वे अपने पुनीत कृत संकलप में पूरी तरहसे और पूरे यशके माथ सफल मनोरथ हुए हैं। यही कारण है कि जैन न्यायाचायोंकी दिगन्त व्यापिनी, मौम्य और उज्जवल कीर्तिका सुमधुर प्रकाश सम्पूर्ण विश्व के दार्शनिक क्षेत्रोंस मूर्तिमान् होकर पूर्ण प्रतिभाके साथ पूरी तरहसे प्रकाशित हो रहा है। से हम इन आदरणीय श्राचार्योंकी सार्वदेशिक प्रतिभा समुत्पन्न, गुणगारिमासे श्रोत प्रोत उज्जवल कृतियोंको देख कर यह निस्संकोचरूपसे कह सकते हैं कि इन की असाधारण अमर और श्रमूल्य कृतियोंने जैनसाहित्यकी ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्यकी सौभाग्य श्रीको श्रलंकृत किया है और वे श्रम भी कर रही हैं ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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