________________
१८४
अनेकान्त
[ मार्गशीर्ष, वीर-निक्सिं०२४१६
पंचानन और न्यायवनसिंहकी उपाधिसे सुशोभित और अलौकिक प्रतिभाका अनुमान करना हमारे थे। नवाँगीवृत्तिकार अभयदेवसे इन्हें भिन्न सम- लिये कठिन है। कहा जाता है कि इन्होंने अपने झना चाहिये । इन्होंने सिद्धसेन दिवाकर रचिन साधुनरित जीवनमें साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण सम्मति तर्क पर पच्चीस हजार श्लोक प्रमाण न्याय साहित्यकी रचना की थी। न्याय प्रन्थोंमें प्रमाणशैली पर एक विस्तृत टीका लिखी है । यह अनेक मीमांसा, अन्ययोग-व्यवछेद और अयोग-व्यवछेद दार्शनिक-ग्रन्थोंका मंथन किया जाकर प्राप्त हुए नामक द्वात्रिंशिकाओंकी रचना आपके द्वारा हुई नवनीतक समान अति श्रेष्ठ दार्शनिक ग्रंथ हैं।
नक ग्रंथ है। पाई जाती है। दशवीं शताब्दि तकके विकसित भारतीय दर्शनोंके ९ रत्नप्रभसूरि-ये वादिदेवसूरिके शिष्य है, अतः ग्रन्थोकी खाता बहीके रूपमें यह एक सुन्दर संग्रह वादिदेवसूरिका जो समय है वही इनका भी समझना ग्रंथ है।
चाहिये। प्रमाणनय-तत्त्वालोकपर इन्होंने पाँचहजार ६ चन्द्रप्रभ सूरि-इनका काल विक्रमकी १२वीं श्लोक प्रमाण 'रनाकराव-तारिका' नामक टीका
शताब्दि (११४६) है। इन्होंने दर्शन-शुद्धि और ग्रन्थ लिखा है, जिमकी भाषा और शैलीको देख प्रमेयरल कोश नामक न्यायग्रन्धकी रचना की है। कर हम इसे 'न्यायकी कादम्बरी' भी कह सकते हैं । कहा जाता है कि इन्होंने सं० ११५८ में पूर्णिमा १० शात्याचार्य-इनका काल विक्रमकी ११वीं (?) गच्छकी स्थापना की थी।
शताब्दि है। इन्होंने सिद्धसेन दिवाकर-रचित ७ वादिदेवसूरि-इनका काल विक्रम स. ११३४ से न्यायावतारके प्रथम श्लोक के आधार पर ही एक
१२२६ तकका है। इन्होंने प्रमाण नयतत्त्वालोक' वार्तिक लिखा है, जो कि प्रमाण-वार्निक भी कहा नामक सत्रबद्ध न्याय-ग्रन्थकी रचना करके उसपर जाता है। इसी वार्तिक पर इन्होंने २८७३ श्लोक चौरासी हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत और गंभीर प्रमाण प्रमाण-प्रमेय-कलिका' नामक टीकाभी लिम्बी 'स्याद्वाद रत्नाकर' नामक टीकाका निर्माण किया है जो प्रकाशित हो चुकी है, किन्तु अनेक अशुद्धियाँ है। यह टीका-ग्रंथ भी जैन न्यायके चोटीके ग्रंथोम रह गई है। से है । "प्रमेयरबकोटीभिः पूर्णो रत्नाकरो महान्" ११ मल्लिषेणसूरि-ये चौदहवीं शताब्दिमें हुए हैं। पक्तिसे इसकी महत्ता और गुरुता आँकी जा सकती आपने श्राचार्य हेमचन्द्र रचित 'अन्य योगव्यवहै। कहा जाता है कि सिद्धराज जयभिहकी राज
छेद' नामक द्वात्रिंशिका पर सं० १३४६ में तीन सभामें दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्राचार्यको वाद- हजार श्लोक प्रमाण "स्याद्वादमंजरी" नामक विवादम इन्होन पगजित किया था। ये बाद- व्याख्या ग्रंथ लिखा है। इसकी भाषा प्रसाद-गुणविवाद करनेमें परम कुशल थे; इसीलिये "देव- सम्पन्न है और विषय-प्रवाह शरद ऋतुकी नदीको सरि" से 'वादिदेव-सूरि' कहलाये।
प्रवाहके समान सुन्दर और अान्हादक है । पट ८ हेमचंद्राचार्य-इनका सत्ता समय विक्रम ११४५ स । दर्शनोंका संक्षिप्त और सुन्दर ज्ञान कराने वाली
१२२६ तक है। इनकी अगाध बुद्धि, गभीर ज्ञान इसके जोड़की दूसरी पुस्तक मिलना कठिन है।