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वर्ष ३, जिस २]
श्वेताम्बर व्यावसाहित्वपर एक एटि
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कर देते हैं । देखा जाय तो इन तीनों परम्परात्रों में साहित्यके ये ही श्राद्य प्राचार्य है। इनका काल केवल विवेचन-प्रणालिको भिन्नता है, तात्विक-दृष्टिसे विक्रमकी तीसरी-चौथी-पाँचवीं शताब्दिमेंसे कोई कोई खास उल्लेखनीय भिन्नता नहीं है।
शताब्दी है । ये जैनधर्म और जैन साहित्यके विक्रमकी बारहवीं शताब्दिमें होनेवाले, दार्शनिक महान्प्रतिष्ठापक और प्रतिभा संपन्न समर्थ श्राचार्य जगतके महान् विद्वान् और प्रबल वाग्मी श्री वादिदेव- थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थोंमेंसे सम्मति तर्क, सूरि आगम-प्रसिद्ध नयवाद प्रणालिका समर्थन करते न्यायावतार, तथा २२ द्वात्रिंशिकाएं उपलब्ध है। हुए नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रको 'अर्थनय' २ मल्लवादी क्षमाश्रमण-इनका काल विक्रमकी की कोटिमें रखते हैं और शब्द, समभिरूढ़ और एवं- पाँचवीं शताब्दि है । इनका बनाया हुआ न्यायभूतको 'शब्दनय' की कोटिमें गिनाते हैं। किन्तु पूर्व ग्रन्थ "नय चक्रवाल" सुना जाता है, जो कि तीनी नयोंको द्रव्यार्थिककी श्रेणी में रखकर और शेष दुर्भाग्यसे अनुपलब्ध है। कहा जाताहै कि इन्होंने चारको पर्यायार्थिककी श्रेणीमें रखकर सिद्धसेनीय शीलादित्य राजाकी सभामें बौद्धोंको हराया था मर्यादाका समर्थन करते हैं।
और उन्हे सौराष्ट्र देशमेसे निकाल दिया था। यहाँ तक अागम-काल, भारतीय-न्याय-शास्त्रकी ३ सिंहक्षमाश्रमण-इनका काल सातवीं शताब्दि आपत्ति और उसके विकामके कारण, बौद्ध और जैन
माना जाता है। इन्होंने "नय-चक्रवाल" पर १८ पाय शास्त्रकी आधार शिला, स्याद्वाद सिद्धान्त और
हज़ार श्लोक प्रमाण एक सुन्दर संस्कृत टीका उसके शाखारूप प्रमाण एव नबका ऐतिहामिक वर्गी
लिखी है । इसकी प्रति अस्त व्यस्त दशामें और करा श्रादि विषयोंका संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा
अशुद्ध रूपस पाई जाती है । उच्चकोटिके दार्शनिक चुका है । न्याय ग्रंथों वणित हेतुवाद एवं अन्यवादों।
ग्रथोंमें इमकी गणनाकी जाती है। पर दृष्टि डालनेकी इच्छा रखते हुए भी विस्तार-भयसे ४ हरिभद्रसूरि-इनका अस्तित्व-काल विक्रम ७५७स प्रमा नहीं करके प्रसिद्ध प्रसिद्ध जैन न्यायानार्योंका ८२७ तकका सुनिश्चित हो चुका है । ये 'याकिनीपनिहासिक काल श्रम बतलाते हए, तथा मंपर्ण न्याय महत्तरास्नु' के नामसे प्रसिद्ध है और १४४४ ग्रंथोमाहित्य पर एक उपमहारात्मक सरसरी दृष्टि डालने हुए
के प्रणेता कहे जाते हैं। इन्हें भारतीय माहित्ययह लेख समाप्त कर दिया जायगा ।
कागेकी मर्वोच्च पंक्तिके साहित्यकारोंमेंसे समझना कुछ प्रसिद्ध जैन न्यायाचार्य
चाहिये । ये अलौकिक प्रतिभासंपन्न और महान् १ सिद्धमन दिवाकर *-श्वेताम्बर जैन न्याय
मंधावी, गंभीर न्यायाचार्य थे । अनेकान्त जयपता
का, पड्दर्शन समुच्चय, शाम्बवार्ताममुच्चय, अने* सिद्धसेन दिवाकर और प्राचार्य हेमचन्द्र पर
कान्तवाद प्रवेश धर्ममंग्रहणी, न्यायविनिश्चय (2); विस्तृत विचार जाननेकी इच्छा रखनेवाले पाठक मेरे द्वारा लिखित और "अनेकान्त" वर्ष से की किरण,
आदि इन द्वारा रचित न्यायके उच्चकोटिके ग्रंथ हैं। १, ६ और । एवं १०में प्रकाशित इन पाचार्य विषयक ५ अभयदेव सरि-ये विक्रम की १०वीं शतान्दिके निबन्ध देखनेकी कृपा करें। -लेखक
उत्तरार्ध और ११वींके पूर्वार्धमें हुए । ये तर्क