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________________ १८२ बनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४६६ भागोंमें बांट दिया गया है। एक मागमें मतिशनका के ५ भेद किये हैं, १ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, और दूसरेमें अवधि श्रादि तीनका समावेश किया गया है ४ अनुमान, और ५ आगम । इस प्रकार सारांश रूप भी नन्दी सूत्रमें भी अनुयोगद्वारके समान ही प्रत्यक्षके से यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण प्रमाण बादको दो भेद किये जाकर एकमें मतिज्ञानको और दूसरेमें जैन न्यायाचार्योंने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपमें सुव्यवअवधि आदि तीनको रक्खा है। किन्तु परोक्ष वर्णनमें स्थित रूपसे संघटित कर दिया है, जो कि सम्पूर्ण जैन पुनः मति श्रुति दोनोंका समावेश कर दिया है। यह वाङ्मयमें निर्विवाद रूपसे सर्वमान्य हो चुका है। अनुयोगद्वारकी अपेक्षा नंदी सूत्रकी विशेषता है। इस नयवादको विकास-प्रणाली प्रमाणवादकी विकाम प्रकार आगमोंमें भी मिलनेवाली सोशमिश्रित ज्ञान प्रणालिके समान विस्तृत नहीं है । मूल श्रागम ग्रंथों में प्रणालीका यह अति स्थल रेखा दर्शन समझना चाहिये। सात नयोंका उल्लेख पाया जाता है। प्राचार्य मिद्धमेन __विशुद्ध तार्किक ज्ञान-प्रणालीका एक ही रूप पाया दिवाकर छह नय ही मानते हैं। वे नैगमको स्वतन्त्र जाता है और वह है प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली नयकी कोटि में नहीं गिनते है । द्रव्याथिक दृष्टिकी मर्यादा प्रणाली । सम्पूर्ण जैन सस्कृत वाङमय, सर्व प्रथम यह संग्रह नय और व्यवहार नय तक ही स्वीकार करते प्रणाली श्राचार्य उमास्वानि कृत "तत्वार्थसूत्र" में पाई हैं । शेष चार नयों को पर्यायार्थिक दृष्टिकी मर्यादाके जाती है। गिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और दिगम्बरा- अन्तर्गत समझते हैं । इन प्राचार्य के पर्व कोई षट्नयचार्य भट्टाकलंकदेवने इतना विश्लेषण कर पर्णरीत्या वादी थे या नहीं, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका ममर्थन किया; और ततश्चान् जिनेश्वर सूरि, वादिदेव है। इसलिये यह कहा जाता है कि प्राचार्य सिद्धसेन सूरि हेमचन्द्राचार्य तथा उपाध्याय यशोविजय जी श्रादि दिवाकर ही आदि षट्-नयवादी हैं । श्वेताम्बर श्राचार्योने और माणिक्यनन्दी तथा विद्या प्राचीन परंपरा द्रव्यार्थिक दृष्टिकी मर्यादा जुमूत्र नन्द श्रादि दिगम्बर श्राचार्योने भी अपने अपने न्याय नय तक स्वीकार करती है; किन्तु सिद्धमन काल के ग्रन्थों में इस प्रणालीको पूरी तरहमे मंगुफिन कर दिया पश्चात् । यह मर्यादा व्यवहारनय तक हो अनेक जो कि अद्यापि मर्वमान्य है। श्राचार्यों द्वारा स्वीकार करली गई है। समर्थ श्रागतिक इम प्रणालीमें प्रत्यक्षके दो भाग किये गये हैं:- विद्वान् जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण एवं प्रचंड नैयायिक १ मांव्यवहारिक और पारमार्थिक । प्रथम भागमें श्री विद्यानन्द श्रादि प्राचार्यों द्वारा चर्चित नयवादमति, श्रुतिको स्थान दिया गया है और दूमरेमें अवधि, चर्चा उपयुक्त कथनका समर्थन करती है। मनःपर्यय और केवलको इस प्रकार प्रत्यक्ष भेदमें आगम-अभिद्ध सप्त नयवाद और मिद्धसेनीय पट विशुद्ध श्रागमिक पद्धतिकी समस्याको केवल हल कर नयवादके अनिरिक्त जैन संस्कृत साहित्यके आदि खान, दिया है और परोक्षमें तार्किक-संघर्ष मे उत्पन्न प्रमाणके प्राचार्य प्रवर वाचक उमास्वातिकी तीसरी नय-वाद-भेदभेदोंका समावेश कर दिया गया है। जैनेतर दार्शनिकों प्रणालि भी देखी जाती है । ये 'नेगम' से 'शब्द' तक ने जितने भो प्रमाण माने हैं, उन सबका समावेश ५ नय स्वीकार करते हैं; और अंतमें 'शब्द' के तीन परोक्षके अन्तर्गत कर लिया गया है। जैनदृष्टिसे परोक्ष भेद करके प्रागम प्रसिद्ध शेष दो नयोंका भी समावेश
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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