SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर न्यावसाहित्यपर एक दृष्टि 141 करते हुए गौणता प्रदान करने पर ही वस्तु-तत्त्वका है। स्वपर-निश्चायक शान ही प्रमाण है । जैन वाङमयनिर्णय हो सकता है ॥४॥ में ज्ञान-दर्शनकी दो पद्धतियाँ उपलब्ध हैं। एक भाग. ___ स्याद्वाद सिद्धान्त परमागमका बीज है, इसने मिक और दूसरी तार्किक । श्रागमिक पद्धतिके भी दो जन्मान्ध-गजन्यायके समान एकान्तवाद रूप मिथ्या- रूप मिलते हैं। एक तो विशुद्ध-श्रागमिक और दूसरी धारणाका सर्वथा नाश कर दिया है । यह वस्तुमें तर्का श मिश्रित-आगमिक । विशुद्ध प्रागमिक-शान निरुसनिहित अनन्त धर्मोको अपेक्षा करता हुआ, विरोधोंको पण पद्धतिमें ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं । मति, विविधताके रूपमें समन्वय करनेवाला है। ऐस सिद्धान्त श्रुति, अवधि, मनः पर्यय और केवल । इनको श्रागशिरोमणि "अनेकान्तवाद" को मैं अनत बार नमस्कार मिक कहनेका कारण यह है कि श्रात्माकी मूलभूत करता हूँ ||५|| शुद्धि और अशुद्धि के विवेचन में जो 'कर्ममिद्धान्त' का इसलिये स्याद्वादको मशयवाद या अनिश्चयवाद वर्णन किया जाता है, उसमें ज्ञानावरण कर्मके पाँच कहना निरी मूर्खता है । स्याद्वाद सर्वानुभवसिद्ध, सुव्य- ज्ञान-भेद के अनुसार किये गये हैं । तर्क संर्घषणसे उत्पन्न वस्थित, सुनिश्चित, और सर्वथा निर्दोष सिद्धान्त है। प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्षरूप भेदोंके श्राधारसे प्रत्य. सपूर्ण धार्मिक क्लेशोंको दूर करनेके लिये, मभी मन- क्षावरण और परोक्षावरणरूपभेद ज्ञानावर्ण कर्मके नहीं मतान्तरोका समन्वय करके उनको एक ही प्लेट फार्म किये गये हैं । यदि ज्ञानावर्ण के भेद प्रत्यक्षावर्ण और पर लानेके लिये, एवं विश्व के विखरे हुए और विरोधी परोक्षावर्ण के रूपमें किये जात तो यह तर्कप्रधान ज्ञानरू.पस प्रतीत होनेवाले लेखों विचारों तथा हजारों संप्रदायों विवेचन-प्रणाली कहलाती । किन्तु ऐमा न होने से यह को एक ही सूत्रमें अनुस्यत करनेके लिये स्यादाद जैमा अनिविशुद्ध और प्राचीन श्रागमिक-जान प्रणाली है। कोई दूसरा श्रेष्ठ सिद्धान्त है ही नहीं। विश्वकी सभ्यत, नर्कमिश्रित श्रागमिक शान पद्धतिमें ज्ञान रूप मस्कृति और शांति के विकास के लिये जैनदर्शन और प्रमाण के ४ विभाग किये गये हैं। १ प्रत्यक्ष. २ अनुजैनतर्क शास्त्रकी यह एक महान् देन है। किन्तु खेद मान, ३ उपमान, और ४ अागम । तदनुमार विशुद्ध है कि अाजका जैनममा ज अनेक मप्रदायाम विभाजित आगमिक ज्ञान पद्धतिके भेदोका ममावेश प्रत्यक्षमें ममहोकर क रन जैसे सुन्दर सिद्धान्तको शीशेक टकड़ोंक झना चाहिये और शेष भेद तर्क-मघर्ष से उत्पन्न हुए हैं, रूपम परिणत करता हुआ भगवान् महावीर स्वामीक ऐमा ममझना चाहिये । श्री ठाणांग सूत्रमें "प्रत्यक्ष नामपर विश्वामघात कर रहा है! अथोत् अनेकान्तवादी और परोक्ष" तथा "प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और म्बय माप्रदायकव्यामोहम एकान्तवादी हो गया है!! अागम" इस प्रकार दोनों भेद वाली प्रणालीका उल्लेख पाया जाता है। इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली प्रमाण और नय पर ऐतिहासिक दृष्टि प्रणाली तो स्पष्ट रूपसे विशुद्ध तार्किक ही है। श्री यह पहले लिखा जा चुका है कि प्रमाण और नय भगयती मूत्रमें केवल चार भेद वाली प्रणालीका का समन्वय ही स्यादाद-सिद्धान्त है; अतः इस विषय उल्लेख पाया जाता है । श्री अनुयोग द्वारा सूत्रमें चार पर भी एक सरम ऐतिहासिक दृष्टि डालना आवश्यक भेद वाली प्रणालीका उल्लेख किया जाकर प्रत्यक्ष दो
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy