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________________ भनेकान्स [मार्गशीर्ष, बीरनिर्वाण सं० २०६६ जिन जैनेतर दार्शनिकोंने इसे सशयवाद या अनि- इनका संक्षिस भावार्थ इस प्रकार है:श्चयवाद कहा है, निश्चय ही, उन्होंने इसका गंभीर जिसके अभाव में लोकव्यवहारका चलना भी अध्ययन किये बिना ही ऐसा लिखा है। आश्चर्य तो असंभव है, उम त्रिभुवनके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्त इस बातका है कि प्रसिद्ध प्रसिद्ध सभी विभिन्न दार्शनिकों वाद' को असख्यात बार नमस्कार है ||१|| ने इस सिद्धान्तका शब्द रूपसे खडन करते हुए भी मिथ्यादर्शनोंके समूहका समन्वय करनेवाला, प्रकारांतरसे अपने अपने दानिक-सिद्धान्तोंमें विरोधोंके अमृतको देनेवाला, मुमुक्षुओं द्वारा सरल रीतिसे समउत्पन्न होने पर उनकी विविधताओंका समन्वय करने के झने योग्य ऐमा जिनेन्द्र भगवान्का प्रवचन-स्यावाद लिए इसी सिद्धान्तका श्राश्रय लिया है। महामति मिद्धान्त-कल्याणकारी हो ॥२१॥ मीमांसकाचार्य कुमारिलभट्टने अपने गंभीर ग्रन्में दीपकसं लगाकर आकाश तक अर्थात् सूक्ष्मस और सांख्य, न्याय, बौद्ध श्रादि दर्शनोंके अनेक सूक्ष्म वस्तुसे लेकर बड़ीसे बड़ी वस्तु भी 'स्याद्वाद' की श्राचार्योंने अपने अपने ग्रन्थों में प्रकारान्तरसे इमी अाज्ञानुवर्तिनी है । यदि कोई भी पदार्थ चाहे वह छोटा सिद्धान्तका आश्रय लिया है । इस सम्बन्धमें पंहसराज- हो या बड़ा, स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार अपना स्वरूप जी लिग्वित "दर्शन और अनेकन्तवाद" नामकी पुस्तक प्रदर्शित नहीं करेगा तो उमकी वस्तु-स्थितिका वास्तविक पटनीय है। शान नहीं हो सकेगा। हे भगवान ! यह 'स्याद्वाद' से स्याद्वादके महत्व के विषयमें अनेक प्राचीन प्राचार्यो- अनभिज्ञ लोगोंका प्रलाप ही है, जो यह कहते हैं कि ने संख्यातीत श्लोकों द्वारा अत्यन्त तर्क पूर्ण श्रद्धा और "कुछ वस्तु नो एकान्त नित्य हैं और कुछ एकान्त स्तुत्य भावनामय भनि प्रकाशनकी है। उनमें से कुछ अनित्य ।" अतः विद्वान पुरुषाको सभी वस्तुएँ द्रव्या उदाहरण निम्न प्रकारमे है:--. पेक्षया नित्य और पर्यायापेक्षया अनित्य समझना नेश विणा लोगस्स वि ववहारो सन्बहा ग निम्बइ। चाहिये ॥३॥ तस्स भुवणेकगुरूणो णमो अणेगंतवादस्स ॥ जिस प्रकार माखनके लिये दहीको मथनेवाली भई मिच्छादंगणममूहमायस्स भमयमारस्प। म्बी दोनों हाथाम रस्मी ( मन्थान रजु) को पकड़े रहनी जिहावयणस्म भगवश्रो संविमासुहागिम्मस्म। है। एक हाथम ढील देतो है और दूसरे हाथसे उसे -सिद्धसेन दिवाकर खींचती है, तभी मक्खन प्राप्त हो मकता है । यदि वह प्रादीपमाग्योम सम स्वभाव, स्यादादमुद्रातिभेदिवस्तु । एक ही हाथमे कार्य करे अथवा दूसरे हाथकी रस्सीको तमित्यमेवैकमनिस्यमन्य,-दितित्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः॥ -हेमचन्द्राचार्य बिल्कुल छोड देव तो सफलता नहीं मिल सकती है। एकेनाकर्षन्तो श्लथयती वस्तुनयमितरंण। यही स्यावादको नीतिका भी रहस्य है । इस मिद्धान्तम अन्तेन जयति जैनी नातिमन्थाननेमिः गोपी॥ भी "ढोल देना और खोंचना" रूप कियाका वस्तु परमागमस्य बीजं, निषिद्धजात्यन्धसिन्धुर-विधानम्। विवेचन के समय क्रमस गौणता और मुख्यता समझना सकलनपविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकाम्नम् ॥ चाहिये । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्ममय है। उनमंस एक -ग्रमान मार धर्मको मुख्यता और शेष धर्मोको उनका निषेध नहीं
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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