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________________ दर्शनोंकी आस्तिकता और नास्तिकताका आधार [ पं. ताराचन्द जैन न्यायतीर्थ, वर्शन शादी] क समय था जब लोग आस्मिक-उन्नतिकी का स्वांग रचनेवालों पर है। धर्म व दर्शन तो Sोर बड़े जोरोंसे बढ़ रहे थे । आत्मिक- अपने उदेशसे कभी विचलित नहीं होते। हाँ, उन्नतिक विषयमें दार्शनिकोंका परस्परमें मतैक्य न अपूर्ण पुरुषों द्वारा जो दर्शन चलाये जाते हैं वे था, प्रत्येक दार्शनिक अपने मन्तव्य व दर्शन पूर्ण आत्मिक-उन्नति करनेमें प्रायः असफल रहते (Philosophy) को सर्वोत्तम बतलाकर उसको हैं। खैर, यहाँ पर दर्शनोंकी वास्तविकता अवाम्तही आत्मोन्नतिका प्रमुख साधन घोषित करता विकता वा पूर्णता-अपूर्णतासे कोई सरोकार नहीं, था। ये दानिक कभी कभी आपसमें वादविवाद यहां तो सिर्फ इतना ही बतलाना है कि दर्शनों भी किया करते थे, वादविवादका परिणाम कमी की आस्तिकता वा नास्तिकताका अमुक आधार सुखद और कभी कलहवर्द्धक हुआ करता था। है। भात्मिक उन्नतिके लिये अनेक नये दर्शन, मत मैं पहले ही संकेत कर चुका हूँ कि दार्शनिक और मजहब पैदा हुए। आध्यात्मिक उन्नति व अपने अपने मन्तव्यको लेकर श्रापममें वादसुखके नामपर जहाँ इन दर्शनाने जितनी अधिक विवाद किया करते थे और उसका नतीजा कभी सुख और पावन-कृत्योंकी सृष्टिकी है; उन्हींन उसी कभी कलह वर्धन भी हुआ करता था । अति उन्नतिके बहाने दुःखों और अत्याचारोंका कम प्राचीन-कालमें ईश्वगदि विषय पर अनेक सर्जन नहीं किया। मायावियों, स्वार्थियों और शास्त्रार्थ हुए, इन शाम्बाओंमें प्रमुग्व दो विरुद्ध-मनो. अपनेको ईश्वरका प्रतिनिधि घोषित करनेवाले वृत्तिवाले दार्शनिकोंने भाग लिया। इन शास्त्रार्थों लोगोंने देवी-देवता तथा यज्ञादिकी कल्पना कर अथवा वादोंमे मत-भेद मिटने वा तत्वनिर्णयके धर्मकी बोटमें मनुष्य-ममाज और मूक-पशुओंके बजाय, और अधिक द्वेषाग्नि भड़को । जिन बातों अपर जो जुल्म ढाये हैं, उनकी दास्तांक पढ़ने, (ईश्वरादि)क निर्णयकं लिये दर्शनोंका जन्म हुआ, सुनने और स्मरण करने मात्रसे मस्तक घूमने वे विषय आज भी जहाँके तहाँ अन्धकाराच्छन्न लगवा है । यही कारण है कि बहुत लोग धर्मसे हो रहे हैं और दर्शनोंके वाद-विवादोंके विषयमें घृणा करने लगे हैं, परन्तु धर्म जीवनमें उतना ही कविका यह कथन अक्षरशः सत्य मालूम होता भावश्यक है, जितनी हवा । धर्म व दर्शनोंके नाम हैपर जो जुल्म हुए हैं, उनमें उन धर्मों और दर्शनों सदियोंसे फिलासफी की चुनाचुनी रही। का कोई दोष नहीं है। इसका सारा दोष तो धर्म पर खुदाकी बात जहाँ थी वह वहाँ ही रही ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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