________________
३८८
अनेकान्त
[चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६
हैं जिससे राग द्वेष और विषय कपागकी मंदता होती के द्वारा भी अपने भावोंकी शुद्धि नहीं की जाती है, हो और अपनी प्रास्मा एड होती हो, तब तो वे किन्तु भाव हमारे चाहे कुछ ही हों, तीर्थ पर जाने, क्रियायें लाभदायक और जरूरी है और यदि इस ही महापुण्यकी प्राप्ति होती है, इस ही श्रद्धासे नाते विधिमे की जाती हों जिससे रागद्वेष और विषय है। दान देने के लिए भी करुणा मादिकी जरूरत नहीं, कषायोंकी कुछ भी मंदता न होती हो, तो वे सब किंतु देना ही दान है । देनेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है, धर्म क्रियायें भी एक मात्र डौंग और संसारमें ही इस ही वास्ते दिया जाता है-यहां तक कि कोई २ प्रमानेवाली है-संसारसे तिराने वाली नहीं हो तो अपने किसी कष्टके निवारणार्थ ही दान देने सकती है।
___ लगते हैं । इसी तरह दूसरेके द्वारा पूजन कराना, यहां भाजकल बहुधा हमारी दशा ऐसी ही हो रही तक कि नित्य पूजन करते रहने के वास्ते कोई नौकर है, जिससे धर्म-क्रियाओं द्वारा हमने प्रात्म-शुद्धि रख देना भी धर्म साधन समझते हैं । गरज़ कहाँ तक करना, रागद्वेष और विषय कषायों को मंद करना तो गिनाया जाय. हमारी तो सब ही क्रियायें थोथी रह बिल्कुल भुला दिया है, किन्तु बिना भाटे दालके एक गई हैं। मानो जैनधर्म ही पृथ्विी परसे लोप हो मात्र भाग जलाया करने के समान, मात्र वाझ क्रिया- गया है।
ओंका करना ही धर्म समझ लिया है और यह ही हम यह नहीं कहते कि यह सब क्रियायें धर्मकरना शुरू कर दिया है। यदि हम पंचपरमेष्ठीका क्रियाय नहीं है, जरूर हैं और अवश्य हैं । इन वाह्य जाप करते हैं तो उनके वीतराग रूप गुणों को जाननेकी क्रियाओं के बिना तो धर्म-साधन हो ही नहीं सकता जरूरत नहीं समझते, जिनका हम जाप करते हैं है। परन्तु आरा दालके बिना अग्नि जलानेके समान, कोई २ तो पंचनमस्कारका जाप करते हुए उसके अर्थके यदि असली गरजको छोड़कर केवल ये वाह्य क्रियायें जाननेकी भी जरूरत नहीं समझते, किन्तु मन्त्रके ही की जावें तो यह धर्म क्रियायें नहीं है । केवल शब्दों वा मंत्रोंका मुंहसे निकलते रहना ही कानी इन वाह्य क्रियाओंको ही धर्म मानना कोरा मिथ्याव समझते हैं। और कोई कोई तो उलटा अपने राग- है और इनको फिर जैनधर्मकी क्रियायें बताना तो द्वेष और विषय कषायकी सिद्धिके वास्ते ही इन मन्त्रों जैनधर्मको लजाना है। परन्तु अफसोस है कि जब भी को जपते हैं। अनेक भाई विना अर्थ समझे भक्तामर इनमें सुधार करनेकी भावाज़ उठाई जाती है, तब ही स्तोत्रके संस्कृत काम्योंको पढ़कर ही अपने सांसारिक हमारे भोले भाई ही नहीं किन्तु भनेक विद्वान पंडित कार्यों की सिद्धि हो जानेकी भासा किया करते हैं। भी चिल्ला उठते हैं कि यह तो साक्षात् धर्मपर ही उपवास के दिन निराहार रहना ही काफी समझते हैं। कुठाराघात है, जो हो रहा है वह ही होने दो, असली इस दिन सर्वथा भारम्भ त्याग कर धर्म सेवनमें ही दिन पानकली जो भी क्रिया हो रही है उस ही से बैनधर्म व्यतीत करना जरूरी नहीं समझते। इस ही कारण का नाम कायम है, नहीं तो यह भी नहीं रहेगा। संसारके सब कार्य करते हुए भी एक मात्र निराहार परन्तु हम इसके विरुद्ध यह देखते है कि प्राजकता रहनेसे ही उपवासका होना समझ लेते हैं। तीर्थयात्रा- धनदा वाले बोग कम होते जाते हैं और परीक्षा