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धर्माचरणमें सुधार
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नामसे सर्व प्रकारके शारीरिक कष्ट उठा सकता है और बतलाते हुए जैनधर्मको भी बदनाम करते हैं और बड़ी धन भी सर्च कर सकता है, क्योंकि ऐसा उसको अपने भारी पति पहुँचाते हैं। सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके वास्ते सदा ही करना पड़ता पास किया जब उस उद्देश्यकी सिदिके वास्तेकी है। सांसारिक मनुष्य कष्ट उठाने और धन खर्च करने जाती हैं जिनकी वे साधन है। तब तो वे क्रिया का तो पूर्ण रूपसे अभ्यासी ही होता है। संसारी बहुत ही कार्यकारी और जरूरी होती है ! लेकिन अगर मनुष्य तो अपनी भाजीविका मादिके वास्ते भी कौनमें असली गरजको छोड़कर सिर्फ वामक्रियायें ही की जावें भरती हो कर और युद्ध में जाकर अपनी जान तककी तो वे एक प्रकारकी मूर्खता और नावानी ही होती भी पावाह नहीं करता है। माता अपने बकी है। जैसा कि भागके बिना भोजन नहीं पक सकता पालनाके वास्ते सब कुछ तपस्या करनेको तय्यार होती है। भोजन पकानेके वास्ते भागकी सहायताकी अस्य है । ब्याह शादी भादि अनेक गृहस्थ कार्योंमें संसारी न्त जरूरत है। परन्तु यदि कोई भाडा दाल भादि मनुष्य करज लेकर भी इतना खर्च कर देते हैं कि उमर भोजनकी सामग्रीके बिना ही निस्य चल्हेमें भाग भर भी उसे नहीं चुका सकते हैं। पारज कष्ट उठाना और जलाया करें और तवा गर्म किया करै तो क्या वह पैसा खर्च करना तो मनुष्य के लिये आसान है परन्तु मुर्ख नहीं समझा जायगा ? इसी प्रकार यदि कोई अन्तरंगसे राग द्वेषको घटाना और विषय कषायोंको पढ़ना तो न चाहे एक अक्षर भी, किन्तु पुस्तकें लेकर कम करना बहुत ही मुश्किल है । इस कारण जैनियोंके अध्यापक के पास अवश्य जाया करे और उसकी मेवा लिये अमली धर्म-साधनसे फिसलना-अन्तरंग भी सब तरहये किया फिर नो क्या उसकी यह सब शुद्धिको छोड़कर वाह्य क्रियाको ही सब कुछ समझ- कोशिश व्यर्थ नहीं है? इस ही प्रकार यदि कोई लेना-बहुत ज्यादा सम्भव है। विशेषकर जब वे बीमार वैध हकीम तो बदिया २ बुलाया करे और अपने पड़ौसी अन्यमतियोंको सिर्फ वाम क्रियाओं उनकी बताई औषधि भी तय्यार कराया करे, परन्तु द्वारा ही धर्म साधन करता देखते हैं-यहां तक कि दवाका खाना नो दूर रहा, उसको चाखकर देखनेका दूसरे २ पुरुपोंके द्वारा पूजन और जाप प्रादि करानेसे भी साहम न किया करे, उल्टा कुपथ्य मेवन ही करना भी उनका धर्म साधन हो जाता है, तो इस सहन रहा करे तो क्या उमको कुछ स्वास्थ्य लाभ हो रीतिका असर जैनियों पर भी पड़ता है और वे भी मकेगा ? इमी ही प्रकार यदि कोई ग्वेनमें बीज तो अपनी अन्तरंग शुद्धिको छोड़कर कंवल बामक्रियायें डालना न चाहे किन्तु वाहना, जोनना क्यारियां ही करने लगजाते हैं। इस प्रकार अनेक भारी विकार बनाना. पानी सींचना और पहरा देना आदि सय नैनियोंमें भाते रहते हैं जिनका सुधार होने रहना मावश्यक क्रियायें बड़ी सावधानीक माथ करना रहा अत्यन्त भावरक है। नहीं तो ऐसे विकारों के द्वारा करे, तो क्या उसके खेनमें कुछ पैदा होगा या उसकी जैनी अन्यमतके सिद्धान्तोंको मानते हुए भी और सब मेहनत निष्फन ही जायगी ? ऐसा ही धर्म माधन अन्यमतके अनुसार ही धर्म साधन करते हुए भी इन की महायक सब ही वाद्य क्रियायोंकी वावन ममम अपनी सब मान्यतामों और साधनोंको ही बैनधर्म लेना चाहिए । यदि वे क्रियायें इस विधि की जानी