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________________ १८६ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४५६ पासोचना प्रतिक्रमणादि करते रहना भी जरूरी ठहराया हो जाते हैं और सब संकट दूर कर इच्छित मनोकामना है जिससे हर रोज़की अपनी गलती उनको मालम होती पूरी करनेको तय्यार हो जाते हैं, ऐसी अन्य मत वालों रहे और उसका सुधार भी प्रतिदिन होता रहे । मगर को मान्यता है। इस कारण उनकी सब धर्म क्रियायें कोई दोष विशेष प्रकारका होगया है तो उस दोषको प्रायः वाह्य माधन रूप ही होती हैं। भाचार्य महाराजके सामने साफ २ प्रकट कर दिया परन्तु जैनधर्मका सिद्धान्त इससे बिल्कुल ही विनबाय और जो कुछ वे दंड में उसको अपने सुधारके क्षण है । जैनधर्ममें तो किसी भी ईश्वर परमात्मा वा भर्थ निस्संकोच भावमे स्वीकार किया जाय । यदि मुनि देवी देवताको प्रसन्न करना नहीं है, किन्तु अपनी ही के अन्दर कोई बहुत ही ज़्यादा विकार आगया तो मारमाको विषय कषायों और राग द्वेषके मैखसे शुद्ध प्राचार्य महाराजको उचित है कि उसके सुधारके वास्ते करना है। जिस प्रकार बीमारको स्वास्थ्य प्राप्त करनेके उसको मुनि पदसे ही अलग कर देखें और फिर श्राहि- वास्ते औषध मादिके द्वारा अपने शरीरमें से दोषोंका स्ता २ उसका सुधार कर दोबारा मुनि दीक्षा देखें। निकाल देना जरूरी है, शरीरके जितने जितने दोष इस प्रकार जब मुनियों तकमें विकार माजानेकी सम्भा- शांत होते रहते हैं उतना ही उतना उसको स्वास्थ्य बना और उनका सुधार होना जरूरी है तब श्रावकों में लाभ और सुख शांतिकी प्राप्ति होती रहती है। तो विकार उत्पन्न होते रहनेकी बहुत ही ज़्यादा:सम्भा- उसी प्रकार धर्म-सेवन के द्वारा राग द्वेष और विषयबना है, उनमें भी पहली प्रतिमा धारी भवती श्रावकों कपायोंमें जितनी कमी होती है उतनी ही उतनी में तो विषय कषायोंकी अधिकताके कारण विकारोंके उसकी प्रारमाकी शुद्धि होती जाती है और सुख पैदा होते रहनेकी और भी ज्यादा सम्भावना और उन शांति मिलती जाती है ।अतः जैनधर्ममें वे ही साधन का सुधार होते रहनेकी और भी ज्यादा जरूरत है। धर्म साधन माने जाते हैं और वही क्रियायें धर्म क्रियायें जैनधर्मके सिवाय अन्य मतोंमें तो जिनमें एक समझी जाती हैं, जिनसे राग द्वेष और विषय कषायों ईश्वर वा अनेक देवी देवनाओंके द्वारा ही जीवोंको में मंदना पाती हो और होते होते उनका सर्वथा ही सुख-दुख मिलना माना जाता है, उस एक ईश्वर वा नाश हो जाता हो । दूसरे शब्दोंमें यूं कहिये कि जैनदेवी देवताओंको प्रसन्न करते रहना ही एक मात्र धर्म धर्ममें भन्य मतोंकी तरह बाह्य क्रियायें करना ही धर्म साधन ठहराया गया है-उन्हींके प्रसव होनेसे पूर्वकृत नहीं है किन्तु इसके विपरीत जैनधर्मका असली धर्म पापसमा हो जाते हैं और बिना पुण्य कर्म किये ही साधन एकमात्र राग द्वेष और विषय कषायोंसे अपनी सब सुख मिल जाते हैं। उनको प्रसन्न करनेके वास्ते भारमाको शुद्ध करना ही है। बास किया तो इस भी उन मतोंमें भेंट चढ़ाने, स्तुति गाने, मुखसे माम असली धर्म-साधनकी सहायक ही हो सकती हैं । रागजपते रहने या दूसरोंमे जाप करा देने,गंगा प्रादि नदियों द्वेष और विषय कषायोंकी मंदताके बिना कोई भी में नहाने भाविकी ऐसी बार क्रियायें निश्चित हैं, क्रिया धर्म क्रिया नहीं मानी जाती है। परन्तु मनुष्य जिनमें अन्तरंगकी यदिको प्रायः कुछ भी जरूरत नहीं के लिये बाध क्रियाकामना मासान होता है और परती है, मास विधियों के पूरा होनेसे ही देवता प्रसा अंतरंगको राख करना बहुत ही कठिन । मनु धर्मक
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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