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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाह सं०२४६६] - सत्य अनेकान्तात्मक है मन नैय्यायिकदृष्टि (Logical View) से देखने की भूत वथा भावी अवस्थाको लक्ष्यमें न जाकर वाले वस्तुको सम्बन्ध-द्वारा संकलित विभिन्न स- केवल उसकी वर्तमान अवस्थाकोही लक्ष्य बनाते चात्रोंकी एक संगृहीत म्यवस्था मानते हैं। उनका हैं। उनका कहना है कि चूंकि इन्द्रियों द्वारा जो मूलसिद्धान्त यह है कि प्रत्येक अनुभूतिके अनुरूप कुछ भी बायजगतका बोध होता है, यहोय कोई मत्ता जरूर है, जिसके कारण अनुभूति होती पदार्थके शृखलाबद्ध परिणामोंके प्रभावसे पैदा है। चूंकि ये अनुभूतियाँ सप्त मूलगों में विभक्त हो होनेवाले द्रव्येन्द्रियके शृङ्खलाबद्ध विकारोंका मकती हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, फल है, इसलिये वस्तु परिणामोंकी शृखलामात्र मम्बन्ध (समवाय ?) और प्रभाव । अतः सत्यका है। यह दृष्टि ही क्षणिकवादी बौद्ध दार्शनिकों की इन सात पदार्थोसे निर्माण हुआ है। यह दृष्टि ही है। यही दृष्टि आधुनिक भूतविद्याविठोंकी है । बैशेषिक और न्यायदर्शनको अभिप्रेत है । मानष्टि ( Epistimological View) से अनुभूतिके शब्दात्मक निर्वाचन पर भी न्याय- देखनेवाले तत्त्ववेत्ता, जो ज्ञानके स्वरूपके माधार विधिसे विचार करने पर हम उपर्युक्त प्रकारके ही पर ही शेयके स्वरूपका निर्णय करते हैं, कहते हैं निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। संसारमें वाक्य-रचना कि वस्तु, बस्तुबोधके अनुरूप भनेक लक्षणोंसे इसीलिये अर्थद्योतक है कि वह अर्थ वा सत्यानु- विशिष्ट होते हुए भी, एक अखण्ड, अभेद्य सचा भतिके अनुरूप है । वह सत्यरचनाका प्रतिबिम्ब है। अर्थात जैसे ज्ञान विविध,विचित्र भनेकान्ताहै। जैसे वाक्य, कर्ता, क्रिया, विशेषण-सूचक त्मक होते हुए भी खण्ड-खण्डरूप भनेक मानोंका शब्दों वा प्रत्ययोंसे संगृहीत एक शब्द-समूह है संग्रह नहीं है, प्रत्युत प्रात्माका एक प्रखएक-अभेद्य वैसे ही वस्तु भी द्रव्य, गुण, कर्म पदार्थोंका सम- भाव है, वैसे ही शान-द्वारा ज्ञात वस्तु भी अनेक वाय-सम्बन्धसे संकलित विभिन्न सत्तामोंका समूह गुणों और शक्तियोंका सामूहिक संग्रह नहीं है बल्कि एक अभेद्य सत्ता है। वर्तमान इन्द्रियबोधको महत्ता देनेवाले सामान्य-यज्ञानकी दृष्टि वा संग्रह ऋजुसूत्रदृष्टि ( Physical View) वाले वस्तुको (5) (Synthetic-view)वाले तत्वोंको बस्तु एकता निरन्तर उदयमें आनेवाली, अनित्य पर्यायों, मावों त्मक-अद्वैतरूप प्रतीत होती है । ऐसा मालूम होता है कि समस्त चराचर जगत एकताके सूत्र में बंधा और क्रियाओं की एक शृङ्खलामात्र अनुभव करते है, एकताके भावसे मोत-प्रोत है, एकताका भाव हैं। वे उस उद्भवके उपादान कारणम्प किसी मर्वव्यापक, शाश्वत और स्थायी है। अन्य समनित्य आधारको नहीं देख पाते। क्योंकि वे वस्तु। 3 म्त भाव औपाधिक और नैमित्तिक हैं, भनिस्य हैं $ Das Gupta- A History of Indian Phi. Das Gupta- A History of Indian Philosophy losophy, P. 312. 1922, P. 158. B. Russil-Analysis of Matter, 1927, * B. Russil---F.R.S.The Analysis of Matter P. 39. 1927.P.244-247.
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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