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________________ २० अनेकान्त और मिया हैं। यही दृष्टि थी जिसके आवेशमें ऋग्वेद १-१६४-४६ के निर्माता ऋषिको वैदिककालीन विभिन्न देवताओंमें एकताका मान जग उठा और उसकी हृदयतन्त्रीसे 'एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति' का राग वह निकला। यह दृष्टि ही वेदान्त दर्शनकी दृष्टि है । विशेष-शेयज्ञानकी दृष्टि वा भेददृष्टि (Analytic-view) से देखने पर, वस्तु अनेक विशेष भावोंकी बनी हुई प्रतीत होती है। प्रत्येक भाव भिन्न स्वरूप वाला, भिन्न संज्ञावाला दिखाई पड़ता है । जितना जितना विश्लेषण किया जाय, उतना ही उतना विशेष भावमें से अवान्तर विशेष और अवान्तर विशेष से अवान्तर विशेष निकलते निकलते चले जाते हैं, जिसका कोई अन्त नहीं है । यही दृष्टि वैज्ञानिकोंकी दृष्टि है। यह दृष्टि ही बिभिन्न विज्ञानोंकी सृष्टिका कारण है । समन्वयकारि-ज्ञानकी दृष्टि (Philosophical View ) से देखने पर वस्तु सामान्य विशेष, अनुभावक अनुभव्य, (subjective and objective), भेद्य-अभेद्य, नियमित अनियमित, नित्य अनित्य, एक-अनेक, सत-सत्, तत्-अतत् आदि अनेक सहवर्ती प्रतिद्वन्दोंकी बनी हुई एक सुव्यवस्थित, संकलनात्मक, परन्तु अभेद्य सत्ता दिखाई पड़ती है, जो सर्वदा सर्व भोर प्रसारित, विस्तृत और उदूभव हो रही है। यह दृष्टि ही 'बीरशासन' [वर्ष ३, किरण १ की दृष्टि है। इसी दृष्टि द्वारा निष्पक्ष हो, साहसपूर्वक बिबिध अनुभवोंका यथाविधि और यथास्थान समन्वय करते हुए सत्यकी ऐसी बिश्वब्यापी सर्वग्राहक धारणा बनानी चाहिये जो देश, काल और स्थिति से अविच्छिन्न हो, प्रत्यक्ष-परोक्ष, तथा तर्क अनुमान किसी भी प्रमाणसे कभी बाधित न हो, युक्तिसंगत हो और समस्त अनुभवोंकी सत्याशरूप संतोषजनक व्याख्या कर सके । क्या सत्यनिरीक्षणकी इतनी ही दृष्टियाँ हैं जिनका कि ऊपर बिवेचन किया गया है ? नहीं, यहाँ तो केवल तत्ववेत्ताओंकी कुछ दृष्टियोंकी रूपरेखा दी गई है। वरना व्यक्तित्व, काल, परिस्थिति और प्रयोजनकी अपेक्षा सत्यग्रहणकी दृष्टियाँ असंख्यात प्रकार की हैं। और दृष्टि अनुरूप ही भिन्न भिन्न प्रकारसे सत्यग्रहण होने के कारण सत्य सम्बन्धी धारणायें भी असंख्यात हो जाती हैं । * Das Gupta—A History of Indian Phi losophy, P. 177. + उपर्युक्त दृष्टिके लिये देखें (च) B. Russil - The Analysis of Matter. London 1927. Chap-XXIII (घ) तवार्थसूत्र १-३३ पर की हुई राजकार्तिक टीका (इ) म्याबाबतार, २१ की सिद्धर्विगदि कृत टीका । तत्त्वोंकी मान्यताओं में विकार । संसारके तस्वशोंकी धारणाओंमें सबसे बड़ा दोष यही है कि किसीने एक दृष्टिको, किसीने दूसरी दृष्टिको, किसीने दो वा अधिक दृष्टियोंको सम्पूर्ण सत्य मानकर अन्य समस्तदृष्टियोंका बहिष्कार कर दिया है। यह बहिष्कार ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी और नि:स्साहस है । इस बहिकारने ही अनेक विरोधाभास - दर्शनोंको जन्म दिया है +1 धर्मद्रव्य अर्थात् Ether के बहिष्कारने * (अ) गोम्मटसार-कर्मकावट, ८१४ (भा) इरिवंशपुराण, २८-६२ + गोम्मटसार-कर्मकार ८२२
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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