________________
[वर्ष ३, किरण
'इन्धिपकापात्रतक्रियाः' पदसे किया गया है,जैसे कि ज्यायो दामः । २२५ पर्वतमादितः । समान दिगम्बर सूत्रपाठमें पाया जाता है और सिद्धसेन तथा मास्वाविवाचकस्म प्रकरणपंचयती नुकृविस्वकाहरिभद्रकी कृतियोंमें भी जिसे भाष्यमान्य सूत्रपाठके धिगमप्रकरवं॥" रूपमें माना गया है। परन्तु बंगाल एशियाटिक सोसाइटी इसमें मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी श्राद्यन्तकारिकाके उक्त संस्करणमें उसके स्थान पर 'भवतकषायेन्द्रि- सहित ग्रंथसंख्या २२५ श्लोकपरिमाण दी है और पकिया' पाट दिया हुआ है और पं० सुखलालजीने उसके रचयिता उमास्वातिको श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार भी अपने अनुवादमें उसीको स्वीकार किया है, जिसका पाँचसौ प्रकरणोंका अथवा 'प्रकरणपंचशती' का कर्ता कारण इस सूत्रके भाष्यमें 'मन्नत' पाठका प्रथम होना सूचित किया है, जिनमें से अथवा जिसका एक प्रकरण जान पड़ताहै और इसलिये जो बादमें भाष्यके व्याख्या- यह 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है। क्रमानुसार सूत्रके सुधारको सूचित करता है। (६) उक्त पुष्पिकाके अनन्तर ६ पद्य दिये हैं, जो
(७) दिगम्बर-सम्प्रदायमें जो सूत्र श्वेताम्बरीय टिप्पणकारकी खुदको कृति है। उनमसे प्रथम सात पद्य मान्यता की अपेक्षा कमती-बढ़ती रूपमें माने जाते हैं दुर्वादापहारके रूपमें हैं और शेष दो पद्य अन्तिम मंगल अथवा माने ही नहीं जाते उनका उल्लेख करते हुए तथा टिप्पणकारके नामसूचनको लिये हुए हैं। इन टिप्पणमें कहीं-कहीं अपशब्दों प्रयोग भी किया गया पिछले पद्योंके प्रत्येक चरणके दूसरे अदरको क्रमशः है। अर्थात् प्राचीन दिगम्बराचार्योंको 'पाखंडो' तथा मिलाकर रखनेसे 'रणसिंहो जिनं बंदे" ऐसा वाक्य 'जड़बुद्धि' तक कहा गया है। यथा
उपलब्ध होता है, और इसीको टिप्पणमें "इत्पन्तिममनु-सहोत्तर-अपि-महाशक सहबारेषु नेद्रोत्पत्ति- गाथाइपरहस्य" पदके द्वारा पिछले दोनों गाथा पद्योंका रिति परवादिमतमेतावतेय सत्यापितमिति परिचमा रहस्य सूचित किया है। ये दोनों पद्य इस प्रकार हैबालित पासंगिनः स्वकपोलकल्पितबुदरोग्य
"सुरनरनिकमनिषेच्यो । पयोदप्रभाचिरदेहः । पापामाहुः, बोगशाहपंचपोग्यविकल्या इत्येव स्पष्ट सूत्रकारोऽस्त्रविषयासंडनीयो निन्दवः।" पीसिंधुजिनराजो । महोदयं दिशति न किययः ॥८॥
"चिजडाः 'महाशामेकं' इत्यादि मूबसूवाम्यपि बबिनोपतापहारी । सदिमणियकोरचंद्रात्मा । न मन्यते पन्नाकाबीनां मियः स्थितिमेदोस्तीत्वपि न भविना सम्बन्मुन संबायते केपी utua पश्यति।" इससे भी अधिक अपशब्दोका जो प्रयोग किया
. इससे स्पष्ट है कि यह टिप्पण 'रत्नसिंह' नामके गया है उसका परिचय पाठकोंको आगे चलकर मालम।
किमी श्वेताम्बराचार्य का बनाया हुआ है। श्वेताम्बर
सम्प्रदायमें 'रत्नसिंह' नामके अनेक सरि-प्राचार्य हो (८) दसवें अध्यायके अन्तमें जो पुष्पिका (अन्तिम
गये हैं। परन्तु उनमेंसे इस टिप्पणके रचयिता कौन है, सन्धि) दी है वह इस प्रकार है
इन दोनों पचोंके सबमें "पोन्ड" ऐसा “इति सत्यापापिगमेजपचवसंग्रहे मोरपना- भाशीर्वाद दिला पाहै।
होगा।