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कार्तिक वीर निर्वाण सं० २४६६]]
तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति
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परन्तु इन चार सूत्रों से 'म द्विविधः' सूत्रको तो दूसरे इसलिये उक्त सूत्रम्ससे पाठान्तर निरर्थक है। श्वेताम्बराचार्योने भी नहीं माना है। और इसलिये यहां 'कुलाबचो' इत्यादिरूपसे जिन श्लोकोका अकस्मात्में 'जडाः' पदका वे भी निशाना बन गये हैं ! सूचन किया है वे उक्त सभाध्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके उन पर भी जडबुद्धि होनेका श्रारोप लगा दिया अन्तमें लगे हुए ३२ श्लोकोंमेंसे १०, ११, १२, १४ गया है!!
नम्बरके श्लोक हैं,जिनका विषय वही है जो उक्त सूत्रकाइससे श्वेताम्बरोंमें भाष्य-मान्य-सूत्रपाठका विषय उक्त सूत्रमें वर्णित चार उदाहरणोंको अलग-अलग चार और भी अधिक विवादापन्न हो जाता है और यह श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है । ऐसी हालतमें उक्त सूत्रके निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि उसका पूर्ण सूत्रकार की कति होनेमें क्या बाधा श्रातीहै उसे यहाँ एवं यथार्थ रूप क्या है। जब कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पर कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। यदि किसी बातको मृत्रपाठके विषय में दिगम्बराचार्यो परम्पर कोई मतभेद श्लोकमें कह देने मात्रसे ही उस श्राशयका सूत्र निरर्थक नहीं है । यदि दिगम्बर सम्प्रदायमें सर्वार्थसिद्धिसे पहले होजाता है और वह सूत्रकारकी कृति नहीं रहता, तो भाष्यमान्य अथवा कोई दूसरा सूत्रपाठ रूढ़ हुश्रा होता फिर २२वें श्लोक में 'धर्मास्तिकायस्याभावात् सहिहेतपोर मर्वार्थमितिकार ( श्री पूज्यपादाचार्य) ने उममें गतेः परः' इस पाठके मौजूद होते हुए टिप्पणकारने कुछ उलटफेर किया होता तो यह संभव नहीं था कि “धर्मास्तिक/याभावात्" यह मूत्र क्यों माना ?-उसे दिगम्बर प्राचार्यो में मूत्र गठ के सम्बन्धमें परस्पर कोई मूत्रकारकी कृति होनेमे इनकार करते हुए निरर्थक क्यों मनभेद न होता । श्वेताम्बगेमें भाष्यमान्य सूत्रपाठके नहीं कहा ? यह प्रश्न पैदा होता है, जिसका कोई भी विषयमें मतभेदका होना बहुधा भाध्यमं पहले किसी समुचित उत्तर नहीं बन सकता । इस तरह तो दसवें हमा मत्रपाठके अस्तित्व अथवा प्रचलित होनेको सूचित अध्यायके प्रथम छह सूत्र भी निरर्थकही ठहरते हैं क्योंकि करता है।
उनका सब विषय उक्त ३२ श्लोकांक प्रारम्भके श्लोकों (५) दमवे अन्याय के एक दिगम्बर मत्रके मम्बन्ध- में आगया है- उन्हें भी सूत्रकारकी कृति न कहना चाहिये म टिपणकारने लिग्वा है
था । अतः टिप्पणकारका उक्त तक निःसार है-उसमे ____ “केचित 'माविलालचक्रवदयपगतले उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता,अर्थात् उक दिगम्बर पालांबुवदेरण्डवीजवदग्निशिखाव' इति नभ्यं सूत्रं मूत्रपर कोई आपत्ति नहीं श्रामकती ।प्रत्युत इसके,उमका प्रक्षिपंति तन्त्र सूत्रकारकृतिः, 'कुलालचक्रे दोलाया सूत्रपाट उमीके हाथों बहुत कुछ अापत्तिका विषय बन मिषौ चापि यथेष्यते' इत्यादिरलोकः सिद्धस्य जाता है । गनिस्वरूपं प्रोक्तमेव, ततः पाठान्तरमपार्थ ।"
(६) इम मटिग्या प्रतिक कुछ मूत्रोंमे थोडामा " __ अर्थात्-कुछ लोग अाविद्धकुलाल चक्र' नामका पाठ भेद भी उपलब्ध होता है-जैसे कि तृतीय अध्यायके नया मृत्र प्रक्षिप्त करते हैं, वह सत्रकारको कृति नहीं १०य मूत्रके शुरू में तत्र' शब्द नहहिं वह दिगम्बर सूत्र है। क्योंकि सालचकदोलायामिपी चापि पयेष्यते' पाठकी तरह 'भरतहमवनहरिविदेह महीप्रारम्भ होता है। इत्यादि श्लोकोंक द्वारा सिद्धगतिका स्वरूप कहा ही है, और छठे अध्यायके ६ठे (दि. ५वे सूत्रका प्रारम्भ )