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________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२६६] तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति १२० - इसका ठीक पता मालूम नहीं हो सका; क्योंकि 'जैन- चिरंदीजीपाण गमाविल्याशीयोल्माया ग्रन्थावली' और 'जैनसाहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' जैसे निर्मवयसका प्रावधनचौरिकापामयावेति ।" ग्रंथोंमें किसी भी रत्नसिंहके नामके साथ इस टिप्पण भावार्थ-जिसने इस तत्त्वाथशास्त्रको अपने ही ग्रन्थका कोई उल्लेख नहीं है। और इसलिये इनके वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों द्वारा ममय-सम्बन्धमें यद्यपि अभी निश्चित रूपसे कुछ भी ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर-यह देखकर कि ऐसी कुत्तानहीं कहा जासकता, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि ये प्रकृति के विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रविक्रमकी १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य हेम- दायका बनाने वाले हैं पहले ही इस शास्त्रकी मूलचन्द्र के बाद हुए हैं क्योंकि इन्होंने अपने एक टिप्पणमें चूल-सहित रक्षाकी है-इसे ज्योंका त्यो श्वेताम्बरहेमचन्द्र के कोषका प्रमाण 'इति हैमः' वास्यके साथ सम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूप में ही कायम रखा दिया है। साथ ही, यह भी स्पष्ट ही है कि इनमें है-वह भाष्यकार (जिसका नाम मालूम नही.) चिरंसाम्प्रदायिक-कट्टरता बहुत बढ़ी चढ़ी थी और वह जीव होवे-चिरकाल तक जयको प्राप्त होवे-ऐसा हम सभ्यता तथा शिष्टताको भी उल्लंघ गई थी, जिसका कुछ टिप्पणकार-जैसे लेखकोंका उस निर्मल पन्थके रक्षक अनुभव पाठकोंको अगले परिचयसे प्राप्त हो सकेगा। तथा प्राचीन-वचनोंकी चोरीमें असमर्थके प्रति प्राशी (१०) उक्त दोनों पद्योंके पूर्व में जो ७ पद्य दिये वर्वाद है। हैं और जिनके अन्तमें "इति दुर्गादापहारः" लिखा है पूर्वाचार्यहरपि विचौरः किंचिदात्मसातवा । उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है। यहाँ व्याख्यानपति नवीनं न तत्समः कचिदपि पिथनः ॥२॥ उनका क्रमशः टिप्पणी सहित कुछ परिचय कराया टिप्पा-"भय बेचन दुरात्मानः सूत्रवाचौराः जाता है: स्वमनीषया पथास्थानं पवेप्सितपाय प्रदत्य स्वापरमागेवैतददक्षिणभषणगणादास्पमानमिव मत्वा । योंकि टिप्पचकारने भावकारका नाम गरेका पातं समूब स भाष्यकारविरं जीवात् ॥१॥ उसके लिये स कमित्' (यह कोई) शब्दों का प्रयोग टिप्प.-"परिवेसम्बोदारावितिदमः समदरिया किया हैजबकि मूबसूत्रकारका बाम उमास्वाति कई असरवाः स्ववचनस्यैव पापातमबिना इति यावत एष स्थानों पर स्पररूपसे दिया है इससे साफ पावित होता भषणाःकुरास्ते गवेवास्थमानं पहिल्यमानं स्वापती- हैकि टिप्पबकारको भाग्यकारका नाम मालूम नहीं था से मबसत्रकारसे मिट समझता था । करिष्यमावमिति बावतयाभूतमिवैततत्वार्थवावं प्रागे भाबकारका निर्मवमन्थरकाय' विशेषरके साथ पूर्वमेव मस्या ज्ञात्वा बेनेति शेषः महमूवचनाम्यामिति प्रापरवौरिकावामगल्याव' विशेषण भी हसो वातसमूलचूर्व प्रा रचितं समिद भाग्यकारो भाग्यकर्ता को चित करता है। इसके 'पावर' बाय तपार्थसूत्र जान पड़ता है, भाष्यकारने उसे पुरान "दरिये सरखोदारो" यह पाठ अमरकोशका अपना नहीं बनाया-बह अपनी मनःपरिवतिके है, उसे 'इति म'विसकर हेमचन्द्राचार्य कोपत्र कारव ऐसा करने के लिये असमर्थ वा-पही बाब प्रकार करना टिप्पचकारकी विचित्र नीतिको सपित यहाँ पतयिा गया है। अन्यथा, ग्मात्याविक विजे मता है। इस विषयकी कोई जरूरत नहीं थी। ------ ---- ----- ------------
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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