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________________ १२६ अनेकान्त [वर्ष ३ किरण १ . बमः।" हितापगम कचित् कुर्वन्ति द्वाय रामापरिवारावेद- ऐसा होनेसे ही क्या होगया ? हम तो एकमात्र इसीमें मुख्यते-पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि । ततः परं वादविह- श्रादररूप नहीं वर्तरहे हैं, छोटे तालाबकी तरह । क्योंकि बानां सद्वक्तृपचोप्यमन्यमानानां वाक्यासंशयेभ्यः अाज भी जिनेन्द्रोक्त अंगोपांगादि श्रागमसभुद्र गर्ज रहे सुशेभ्यो निरीहतया सिद्धांतेतरशाखस्मयापनोदकमेवं हैं, इस कारण उस समुद्रक एकदेशरूप इस प्रकरणसे उसके जाने रहनेसे-क्या नतीजा है ? कुछ भी नहीं । भावार्थ-सूत्रवचनोको चुरानेवाले जो कोई · इस प्रकारके बहुतसं प्रकरण विद्यमान हैं, हम दुरात्मा अपनी बुद्धिसे यथास्थान यथेच्छ पाठप्रक्षेपको किन किनमें रमनेकी इच्छा करेंगे ? दिग्वलाकर कथंचित् अपने तथा दूसरों के हितका लोप परमेतावचतुरैः कर्तव्यं शृणुत कच्मि सविवेकः । । करते हैं उनके वाक्योंके सुननेका निषेध करने के लिये शुद्धो योस्य विधाता स दृषणीयो न केनापि ॥४॥ 'पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि' पद्य कहा जाता है, जिसका टिप्प०-"एवं चाकण्र्य वाचको घुमास्वातिर्दिगश्राशय यह है कि 'जो कविचोर पूर्वाचार्यकी कृतिगंस म्बरो मिलव इति केचिन्मावदादः शिक्षार्थ 'परमेताकुछ भी अपनाकर (चुराकर) उसे नवीनरूपमें व्याख्यान वचतुरैरिति' पचं महे-शुद्धःसत्यः प्रथम इति यावद्यः करता है-नवीन प्रगट करता है-उसके समान कोप्यस्य ग्रंथस्य निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न दूसरा कोई भी नीच अथवा धूर्त नहीं है।' निंदनीय एतावचतुरैविधेयमिति ।" इसके बाद जो सुधीजन वाद-विहलो तथा सद्वक्ता- भावार्थ-ऊपर की बातको सुनकर 'वाचक उमा. के वचनको भी न मानने वालोंके कथनम संशयम पड़े स्वाति निश्चयसे दिगम्बर निव है ऐसा कोई न कहें, हुए हैं उन्हें लक्ष्य करके सिद्धान्तस भिन्न शास्त्र-स्मयको इस बात की शिक्षा के लिये हम 'परमेतावचतुरैः' इत्यादि दूर करने के लिये कहते हैं --- पद्य कहते हैं, जिसका यह अाशय है कि 'चतुर जनों को सुज्ञाः शृणुत निरीहाश्चेदाहो परगृहीतमेवेदं। इतना कर्तव्य पालन जरूर करना चाहिये कि जिमम सति जिनसमयसमुद्र तदेकदेशेन किमनेन ॥३॥ इम तत्त्वार्थशास्त्रका जो कोई शुद्ध विधाता-श्राद्य टिप्प.-"शृणुत भोः कतिचिद्विशाश्वेदाहो यद्युतेदं निर्माता-है वह किसी प्रकारसे दूषणीय-निन्दनीयतरवार्थप्रकरणं परगृहीतं परोपातं परनिर्मितमेवेति न ठहरे। . यावदिति भवंतः संशेरते किं जासमेतावता वयं स्वस्मि. यः कुंकुंदनामा नामांतरितो नियते कैश्चित् । म्नेव कृतादरा न वामहे सघीयः सरसीव, यस्मादयापि शेयोऽम्प एव सोऽस्मारस्पष्ट गुमास्वातिरिति विदितात् ॥५॥ जिनेंद्रोक्तांगोपांगाधामगसमुद्रा गर्जनीति हेनोः सवेक टिप्प.-"तहि कुंदकुंद एवैतत्प्रथमकर्तेति संशयादेशेनानेन कि ? न किंचिदित्यर्थः । ईशानि भूयास्येव पोहाप स्पष्टं ज्ञापयामः यः कुंदकुंदनामेत्यादि । भयं प्रकरणानि संति केषु केषु रिरिसां करिष्याम इति ।" च परतीथिकैः कुंदकुंद इडाचार्यः पद्मनंदी उमास्वा भावार्थ-भोः कतिपय विद्वानी ! सुनो, यद्यपि यह तिरिस्यादिनामांताराणि कल्पयित्वा पठ्यते सोऽस्मातस्थार्थप्रकरण परगृहीत है-दूसरोंक द्वारा अपनाया गया. स्प्ररवकतु मास्वातिरित्येव प्रसिदनाम्नः सका. है-पर निर्मित ही है, यहाँ तक श्राप संशय करते हैं परन्तु शादम्य एव शेयः किं पुनः पुनर्वेदयामः ।"
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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