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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति १२७ भावार्थ-'तब कुन्दकुन्द ही इस तत्त्वार्थशास्त्रके कहते हैं कि हमारे बद्धों-द्वारारचित इस तत्वार्थसूत्रको प्रथम कर्ता हैं, इस संशयको दूर करनेके लिये हम 'यः पाकर और उसे समीचीन जानकर श्वेताम्बरोंने स्वे. कुंदनामेत्यादि' पद्यके द्वारा स्पष्ट बतलाते हैं कि-पर च्छाचारपूर्वक कुछ सूत्रोंको तो तिरस्कृत कर दिया और तार्थिकों (!) के द्वारा जो कुन्दकुन्दको कुन्दकुन्द, इडा- कुछ नये सत्रोको प्रक्षिप्त कर दिया-अपनी प्रोरस चार्य (?), पद्मनन्दी उमास्वाति - इत्यादि नामान्तरों मिला दिया है । इस भ्रमको दूर करने के लिये हम की कल्पना करके उमास्वाति कहा जाता है वह हमारे श्वेताम्बरसिंहानां' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका इस प्रकरणकर्तासे, जिसका स्पष्ट 'उमास्वाति' ही प्रसिद्ध अभिप्राय यह है कि-श्वेताम्बरसिहोंके, जो कि स्व. नाम है, भिन्न ही है, इस बातको हम बार-बार क्या भावसे ही विद्याओंके राजाधिराज हैं और स्वयं अत्यन्त बतलावें। उदंड-ग्रन्थोंक रचने में समर्थ हैं, निहव-निर्मित-शास्त्रीका श्वेतांबरसिंहानां सहनं राजाधिराजविद्यानां । ग्रहण किसी प्रकार भी नहीं होता है-वे परनिर्मित निवनिर्मितयाखाग्रहः कथंकारमपि न स्यात् ॥६॥ शास्त्रको तिरस्करण और प्रक्षेपादिके द्वारा कदाचित् भी टिप्प-नन्वत्र कुतोलभ्यते यत्पाठांतरसूत्राणि अपने नहीं बनाते हैं; क्योंकि जोदूसरेकी वस्तुको अपदिगंबरैरेव प्रशितानि ? परे तु वश्यंति यदस्मदुदैरचितमे नाते हैं—अपनी बनाते हैं---वे चोर होत हैं, महान तत्प्राप्य सम्यगिति हास्या श्वेतांबराः स्वैरं कतिचित्सू- आशय के धारक तो अपने धनको भी निविशेषरूपस प्राणि तिरोकुर्वन् कतिचित्र प्राषिपन्निति भ्रमभेदार्थ अवलोकन करत है-उसमें अपनायतका (निजत्वका)'श्वेतांबरसिंहानामित्यादि' घूमः । कोऽर्थः श्वेतावर भाव नहीं रखते।' सिंहाः स्वयमत्यंतोइंग्रंथग्रंथनप्रभूष्णवः परनिर्मितशा तिरस्करण-प्रक्षेपादिभिर्न कदाचिदप्यारमसाद्विवधीरन् । पाठातरमुपजाय भ्रमात काचवृथव सताशप । यतः 'तस्करा एव जायंते परवस्वास्मसास्कराः, निर्वि- सर्वेषामपि तेषामतः परं भांतिविगमोऽस्तु ॥७॥ शेषेण पश्यंति स्वमपि स्वं महाशयाः।' टिप्प०-अतः सर्वरहस्यकोविदा अमृतरसे कल्पना___ भावार्थ-यहाँ पर यदि कोई कहे कि 'यह बात विषपूरं न्यस्यमानं दूरतस्त्यक्त्वा जिनसमयावानुसार कैसे उपलब्ध होती है कि जो पाठांतरित सूत्र हैं वे रसिका उमास्वातिमपि स्वतीथिक इति स्मरंतोऽनंतसंदिगम्बरोंने ही प्रक्षिप्त किये हैं ? क्योंकि दिगम्बर तो सारपाशं पतिष्यनिर्विशदमपि कनुषीकामैः सह • जहाँ तक मुझे दिगम्बर जैनसाहित्यका पनि निडवैः संगं माकुर्वचिति । है उसमें कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम उमास्वाति है भावार्थ-कुछ संत पुरुष भी. पाठान्तरका उपयोग ऐसा कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। अन्दकन्द जो करके उसे व्यवहारमें लाकर-वृथा ही भ्रमत हैं, उन पाँच नाम कहे जाते हैं उनमें मूल नाम पमनन्दी तथा सबकी भ्रान्तिका इसके बादसे विनाश होवे । प्रसिद्ध नाम कुन्दकुन्दको छोड़कर शेष तीन नाम एला - अतः जो सर्वरहस्यको जानने वाले हैं और जिनाचार्य, वक्रयीव और गृहपिन्छाचार्य है। तथा कुन्दकुन्द और उमास्वातिकी मित्रताके बहुत स्पर रख पाये गमसमुद्र के अनुसरण-रसिक है वे अमृतरसमें न्यस्यजाते है। अतः इस नामका दिया जाना प्राधि- मान कल्पना-विषपुरको दूरसे ही स्यागकर, उमास्वातिको मूखकरे। भी स्वीथिक स्मरण करते हुए, अनन्त संसारके माल
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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