________________
अनेकान्त
[वर्ष ३, किरण'
में पड़ने वाले उन निहवोंके साथ संगति न करें-कोई है जो जैनशासनकी जान तथा प्राण है और जिसके सम्पर्क नरखें-जो विशदकोभी कलुषित करना चाहतेहैं। अवलोकन करनेपर विरोध ठहर नहीं सकता-मनमुटाव
(११) उक्त ७ पद्यों और उनकी टिप्पणीमें टिप्पण. कायम नहीं रह सकता । यदि ऐसे लेखकोंको अनेकान्तकारने अपने साम्प्रदायिक कट्टरतासे परिपूर्ण हृदयका दृष्टि प्राप्त होती और वे जैनी नीतिका अनुसरण करते जो प्रदर्शन किया है-स्वसम्प्रदायके प्राचार्योंको होते तो कदापि इस प्रकारके विषबीज न बोते । खेद है 'सिंह' तथा 'विद्यानोंके राजाधिराज' और दूसरे सम्प्र- कि दोनों ही सम्प्रदायोंमें ऐसे विषबीज बोनेवाले तथा दाय वालोंको 'कुत्ते' तथा 'दुरात्मा' बतलाया है, द्वेष कषायकी अग्निको भड़कानेवाले होते रहे हैं, जिसका अपने दिगम्बर भाइयोंको 'परतीर्थिक' अर्थात् भ० महा कटुक परिणाम आजकी संतानको भुगतना पड़ रहा है !! वीरके तीर्थको न माननेवाले अन्यमती लिखा है और अतः वर्तमान वीरसंतानको चाहिये कि वह इस प्रकारसाथ ही अपने श्वेताम्बर भाइयोंको यह आदेश दिया की द्वेषमूलक तहरीरों-पुरानी अथवा अाधुनिक लिहै कि वे दिगम्बरोंकी संगति न करें अर्थात् उनसे कोई खावटों-पर कोई ध्यान न देवे और न ऐसे जैनप्रकारका सम्पर्क न रखें-उस सबकी अालोचनाका नीतिविरुद्ध आदेशोंपर कई अमल ही करे। उसे अनेयहाँ कोई अवसर नहीं है, और न यह बतलानेकी ही कान्तदृष्टिको अपनाकर अपने हृदयको उदार नथा जरूरत है कि श्वेताम्बरसिंहोंने कौन कौन दिगम्बर विशाल बनाना चाहिये, उसमें विवेकको जागृत ग्रंथोंका अपहरण किया है और किन किन ग्रंथोंको करके साम्प्रदायिक मोहको दूर भगाना चाहिये और एक
आदरके साथ ग्रहण करके अपने अपने ग्रंथों में उनका सम्प्रदायवालोंको दूसरे सम्प्रदायके साहित्यका प्रेमउपयोग किया है, उल्लेख किया है और उन्हें प्रमाणमें पूर्वक तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन करना चाहिये, जिससे उपस्थित किया है। जो लोग परीक्षात्मक, आलोचना- परस्परके गुण-दोष मालूम होकर सत्यके प्रहणकी ओर स्मक एवं तुलनात्मक साहित्यको बराबर पढ़ते रहते हैं प्रवृत्ति होसके, दृष्टिविवेककी उपलब्धि होसके और उनसे ये बातें छिपी नहीं है। हाँ, इतना जरूर कहना साम्प्रदायिक संस्कारोंके वश कोई भी एकांगी अथवा होगा कि यह सब ऐसे कलुषितहृदय लेखकोंकी लेखनी ऐकान्तिक निर्णय न किया जासके; फलतः हम एक अथवा साम्प्रदायिक कट्टरताके गहरे रंगमें रंगे हुए दूसरेकी भूलों अथवा त्रुटियोंको प्रेमपूर्वक प्रकट कर सके, कषायाभिभूत साधुओको कर्ततका ही परिणाम है- और इस तरह परस्परके वैर-विरोधको समूल नाश नतीजा है--जो असेंसे एक ही पिताकी संतानरूप करनेमें समर्थ होसकें। ऐसा करनेपर ही हम अपनेको भाइयों-भाइयोंमें-दिगम्बरों-श्वेताम्बरों में परस्पर मन- वीरसंतान कहने और जैनशासनके अनुयायी बतलाने. मुटाव चला जाता है और पारस्परिक कलह तथा विसं- के अधिकारी हो सकेंगे । साथ ही, उस उपहासको याद शान्त होनेमें नहीं आता ! दोनों एक दूसरपर मिटा सकेंगे जो अनेकान्तको अपना सिद्धान्त बनाकर कीचड़ उछालते हैं और विवेकको प्राप्त नहीं होते !!! उसके विरुद्ध आचरण करने के कारण लोकमें हमारा वास्तवमें दोनों ही अनेकान्तकी ओर पीठ दिये हुए हैं हो रहा है। और उस समीचीनदृष्टि-अनेकान्तदृष्टि-को भुलाये हुए वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० ११-११-१६३६