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अनेकान्त
[वर्ष ३, किरण ?
देवों तकमें किल्विष जातिके देव ऐसे पाये जाते हैं जिनका कारण कायम हुई । धीरे धीरे इन्हींके और भी अवावर्णन मनुष्यजातिके अस्पृश्य शूद्रों के समान किया गया न्तर भेद वृत्तिभेदके कारण होते गये: जैसे सुनार, है; फिर भी इन सबको उबगोत्री इसलिये माना गया जुहार, बढ़ई, धोबी, चमार, भंगी आदि । वृत्तिभेदके है कि इन सभी देवोंके इन कार्योका उनकी वृत्तिसे कोई कारण म्लेच्छ नामकी जाति भी इसी आर्यखंडके मनुष्यों सम्बन्ध नहीं है-वृत्तिकी उपत्ता सब देवों में समानरूपमे की बन गयी है। यह बात नहीं है कि म्लेच्छरखंडोंसे "पायी जाती है, इसलिये सभी देव उवगोत्री माने पाये हुये म्लेच्छ ही यहां पर म्लेच्छ नाम से पुकारे गये हैं।
जाते हैं, यहांके (आर्यखडके ) बाशिन्दे आर्य ही, __ मनुष्यजातिमें सम्मूर्छन मनुष्य तो पतित हैं ही, जो कि भोगभूमिके समयमें बहुत ही सरल वृत्तिके थे, इसलिये उनके नीचगोत्रका अविवाद रूप है। अन्तदी. कालांतर में क्रूर वृत्तिके धारक बन गये। वे ही 'म्लेछ' पज मनुष्योंमें भोगभूमि-समप्रणधि मनुष्योंकी वृत्ति दीन कहलाने लगे हैं। यह परिवर्तन आज भी देखने में है, कारण कि उनके खाने के लिये मिट्टी श्रादि अधम प्राता है। पदार्थ ही मिला करते हैं। कर्मभूमि समप्रणधि मनुष्य जैनियों में भी जिन लोगों का यह ख़याल है कि ग्लेछखंडोंकी तरह विशेषतया क्रूर वृत्ति वाले ही माने "जातियां अनादि है" ( जानयोऽनादयः ) इम मा सकते हैं, इसलिये ये दोनों प्रकारके अन्तर्दीपज वाक्यके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तथा मनुष्य नीचगोत्री माने गये हैं । म्लेच्छरखंडोंके मनुष्यों इनके अवान्तर भेद सुनार, लुहार श्रादि सभी जातियां की वृत्ति विशेषतया क्रूर वृत्ति है, कारण कि उनकी अनादि हैं, उन्हें यह बात नहीं भूलना चाहिये कि मजीविकाके साधन कर हैं, इसलिये ये भी नीचगोत्री भोगभूमिके जमाने में इस भरतक्षेत्रके आर्यखंडमें सभी ही कहे जाते हैं।
____ मनुष्य समान थे, उनमें किसी भी प्रकारका जातिभेद भोगभूमिके मनुष्यों की वृत्ति स्वाभिमानपूर्ण है। न था और यह बात तो स्पष्ट है, कि ब्राह्मण, सत्रिय, उन्हें बिना किसी परिश्रमके उनकी इच्छानुकूल अच्छे२ वैश्य और शूद्र इन चार जातियों ( वर्णो ) में मनुष्य मोजन कल्पवृक्षोंसे मिला करते हैं, उनको अपने पेट का विभाजन ऋषभदेव व उनके पुत्र भरन चक्रवर्तीने भरने के लिये दोनता अथवा करतापूर्ण कार्य नहीं करने किया था । इसके बाद धीरे धीरे और भी भेद पड़ते हैं, इसलिये वे उच्चगोत्री माने गये हैं। प्रार्य इनमें वृत्ति भेदके कारण कायम होते गये और भाज वंडके साधु भी उल्लिखित स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिके कारण तक कायम होते जा रहे हैं। उस गोत्री माने गये हैं।
यद्यपि धर्म, सम्प्रदाय, देश, प्रान्त व्यक्तिविशेष भार्यस्खंडके बाकी मनु योंकी वृत्ति भिन्न २ प्रकार प्रादिके आधार पर भी मनुष्यों में बहुत सी जातियोंकी की देखी जाती है। वृत्तिभेदके कारण ही आर्यवंडके कल्पना की गयी है और की जा रही है परन्तु गोत्रकर्मके मनुष्योंकी नाना जातियां कायम हो गई हैं । इस भारत- प्रकरणमें इन जातियोंको विवक्षा नहीं है, इसलिये क्षेत्रके भार्यस्खंड में कर्मभूमिकी रचनाके बाद ही मनुष्योंमें ऐसी जातियों का समावेश यहां पर नहीं किया गया है। मामय, पत्रिय, वैश्य और शूद ये जानियां वृत्ति-भेदके इस कथनका तात्पर्य यह है कि मनुष्यों में जिनने