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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६]
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ?
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भेद वृत्ति अर्थात् आजीविकाके निमित्त पाये जाते हैं वह शरीर वृत्तिका प्रयोजक कारण पाता है। क्योंकि उतनी ही जातियां मनुष्यों की प्राज कल्पित की जा जीव को किसी-न-किसी शरीरका संयोगरूप जीवन सकनी है: इतना अवश्य है कि ये सब वृत्तिभेद लोक- प्राप्त होने पर ही खाने पीने मादि अावश्यकताओं की मान्य और किनिन्ध इस तरहसे दो भागोंमें बांटे जा पूर्तिके लिये वृत्तिकी भावश्यकता महसूस होती है, सकते हैं, इसलिये यह भी निश्चित है कि जिन जाति- शरीर वृत्तिका सहायक निमित्त भी है अर्थात् शरीरके योंकी या जिन मनुष्योंकी वृत्ति लोकमान्य है वे उप- द्वारा ही जीव किसी न किसी प्रकारकी वृत्तिको अपगोत्री भोर जिनकी वृत्ति लोकनिय है वे नीचगोत्री नाने में समर्थ होता है। ही कहे जायेंगे या उनको ऐसा समझना चाहिये। यही कारण है कि शरीरको गोत्रकर्मका नोकर्म तात्पर्य यह है कि जब आर्यखंडके मनुष्योंकी वृत्तियां बतलाया गया है । जिस कुलमें जीव पैदा होता है वह उच्च और नीच दो प्रकारको पायी जाती है तो वे मनुष्य कुल जीवको वृत्ति अपनाने में अवलम्बनरूप निमित्त भी उच्च और नीच गोत्र वाले सिद्ध होते हैं। पड़ता है. क्योंकि उस कुलमें लोकमान्य या लोकनिय
गोत्रपरिवर्तन और उसका निमित्त जिस वृत्ति के योग्य बाह्य साधनसामग्री मिल जाती ऊपर गोत्रकर्मके स्वरूप, कार्य व भेदोंके विषयमें है उसी वृत्तिको जीव अपने जीवनकी आवश्यकताओंकी अच्छी तरहसे प्रकाश डाला गया है और यह बात पर्तिके लिये अपनालेता है। यही कारण है कि राजअच्छी तरहमे प्रमाणित करदी गयी है कि मनुष्यों में वार्तिक मादि ग्रन्थोंमें रखकुल और नीचकुलमें जीवका उच्च और नीच दोनों गोत्रोंका उदय पाया जाता है पैदा हो जाना मात्र ही क्रममे उपगोत्र और नीचगोत्र नथा वह लोक-व्यवहारके साथ माथ युक्ति अनुभव व कर्मका कार्य बनला दिया गया है।
आगमके भी अनुकूल है। अब सवाल यह रह जाता है यहां पर कुलमे तात्पर्य उस स्थानविशेषसे है कि गोत्रपरिवर्तन हो सकता है या नहीं ? अर्थात् उच- जहां पर पैदा होकर जीव अपनी वृत्ति निश्चित करनेके गोत्र वाला जीव कभी उच्चगोत्री व नीचगोत्र वाला लिये बास साधनसामग्री प्राप्त करता है। नोकर्मकभी उच्चगोत्री हो सकता है या नहीं?
वर्गणाके भेदरूप कुल तो केवल शरीर-रचनामें भेद ___ पहिले कह पाये है कि जीवकी लोकमान्य वृत्ति करने वाले हैं, जीवकी वृत्ति पर इन कुलोंका कुछ भी उच्चगोत्रकर्मके उदयसे होती हैं और लोकनियवृत्ति असर नहीं होता है । मनुष्य शरीरके निर्माण योग्य नीचगोत्रकर्मके उदयसे होती है अर्थात् इन दोनों जिस नोकर्मवर्गणासे एक ब्राह्मणका शरीर बन सकता गोत्रकर्मोंका उदय अपने अपने कर्मस्वरूप वृत्तिका उसी नोकर्म वर्गणासे एक भंगीका भी शरीर बन अंतरंग कारण है। ज्ञानी होनेके कारण वृत्तिका कर्ता सकता है, और इसका प्रयोजन सिर्फ इतना है कि उम्म व फलानुभवन करने वाला जीव है, यही कारण है कि प्रामण और उस भंगीकी प्राकृतिमें समानता रहेगी। गोत्रकर्मको जीवविपाकी प्रकृनियों में गिनार गया है। जिन लोगोंका यह खयाल है कि ब्रामणका शरीर शुद्ध जीवका जिस शरीरमे जब संयोग हो जाता है और जब नोकर्मवगणाांका पिंड है और भंगीका शरीर तक वह संयोग विद्यमान रहना है नब और तब तक अशुद्ध नोकर्म वर्गणाओंका पिंड है और ये शरीर