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________________ ५४ [ वर्ष ३, किरण १ अम्वावरीष जातिके असुरकुमारोंका शरीर भी नीच नोकर्मवर्गणाओं से बना हुआ मानना पड़ेगा, जिसमें देवोंमें भी उच्च व नीच दोनों गोत्रोंका सद्भाव मानना निवार्य होगा । इसी प्रकार नियंचोंमें भी कोई कोई तिर्यंच देखने में इतने प्रिय मालूम पड़ते हैं कि मनुष्य rest थपने पास रखने में अपना सौभाग्य समझता है। ऐसी हालत में उनका शरीर भी उच्च नोकर्म वर्गणाथों मे बना हुआ मानना पड़ेगा, जिससे तियेचोंमें भी दोनों गोत्रोंका सद्भाव मानना अनिवार्य होगा, जो कि श्रागम विरुद्ध है । इसलिये यह बात निश्चित है कि गोत्रकर्मका व्यवस्था में नोकर्म वर्गणा के भेदरूप कुलोंका बिल्कुल सम्बन्ध नहीं है। यही कारण है कि जीवकी उच्च-नीच वृत्तिके अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीको जुटा देने वाले स्थानविशेष है। यहां पर 'कुल' शब्दमे ग्रहण किये गये हैं । श्रनेकान्त जीवनमें जीवनभर क्रमसे शुद्ध और अशुद्ध ही बने रहेंगे, उनका यह खयाल जैन सिद्धान्तों के विपरीत है, क्योंकि जैन सिद्धान्त अनुसार ब्राह्मण और भंगी ये संज्ञायें उनके योग्य वृत्तियों के आधार पर कल्पित की गयी हैं । इसलिये जो व्यक्ति जिस वृत्ति का धारण करने वाला होगा और जब तक उस वृत्तिको धारण करे रहेगा तब तक वह व्यक्ति उसी संज्ञामे व्यवहार योग्य बना रहेगा | इसका अर्थ यह है कि ब्राह्मण भी अपने भंगो बन सकता है और भंगी भी अपने जीवन में ब्राह्मण बन सकता है । इसलिये यह बात निश्चित है कि नोकर्मवर्गणा के भेदरूप कुलोंमें पवित्रता (जाता ) अपवित्रता ( नीचता) रूपसे विषमता नहीं है। और यही कारण है कि नोकर्मणा के भेदरूप कुलोंसे जीवके आचरण (वृत्ति) में भी उच्चता और नीचता रूपसे विषमता नहीं आसकती है। जिस प्रकार अत्यधिक प्रकृतिमंद देव, मनुय, निर्यच और नारकियों के नोकर्मवर्गणा के भेदरूप कुलों का पृथक पृथक् विभाजन कर दिया है उसीप्रकार एक एक गतिके कुलोंके जो लाखों करोड़ भेद कर दिये हैं उनका अभिप्राय भी देव आदि पर्यागोंकी समानता में भा प्राकृतिभेदका पाया जाना ही है। यदि मनुयोंके नोकवर्गणा के भेदरूप कुलों में किन्हीं को उच्च और किन्हीं को नांच माना जायगा तथा उनके आधार पर यह व्यवस्था बनायी जायगी कि उच्चगोत्र वालोंका शरीर उच्च नोकर्म वर्गणासे और नीचगोत्र वालोंका शरीर नीच नोकर्म वर्गणाधों बना हुआ है, तो देवों में भी कल्पवासियों में किल्विष जातिके देवोंका व म्यन्तरों में क्रूरकर्म वाले राक्षस, पिशाच व भूतजाति के देवोंका शरीर तथा भवनवासियों में भी शरोर ये कुल मोटे रूपसे चार भागों में बांटे जा सकते हैं नरकगति ( नरककुल) तिर्यग्गति तिर्यक्कुल) मनुष्यगति ( मनु त्यकुल ) देवगति (देवकुल) । कारण कि ये चारों गतियां जीवोंको वृत्तिमें अवलम्बनरूप निमित्त पड़ती हैं। नरकगति और नियंचगतिमें जीवनपर्यंत नीचवृत्तिके अनुकूल ऊपर लिखे अनुसार बाह्य साधनसामग्री मिला करती है । इसी प्रकार सम्मूर्च्छन, अन्नपज क स्लेच्छम्बंडों में रहने वाले मनुयोंको भी अपने स्थानों में जीवनपर्यंत नीच वृत्तिके अनुकूल ही बाह्य साधनसामग्री मिला करती है, इसलिये इन सबमें जीवन पर्यंत एक नीच गोत्र कर्म का ही उदय रहता है। देवगति में देवोंको व भोग भूमिमें मनुष्योंको जीवनपर्यन्त उच्चवृत्ति के अनुकूल ही बाह्य साधनसामग्री मिला करती है, इसलिये इनमें जीवनपर्यन्त उच्च गोत्र कर्मका ही उदय माना गया है। अब केवल धर्यखंडों के
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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