________________
अनेकान्त
[वर्ष ३ किरण १
भरे मूठ ! पुत्र-पनत्र, गृह-वाटिका, धन-दौलत. कठिन है। जिन्हें अपने समझना है, वे तेरे कहाँ है? ममत्व- तुझे पता नहीं,जीवको अपनी पहरणमरने जीने भावसे हो त उनके साथ बँधा है । ममस्व तोब और बाली निगोद दशासे उपर उठ, मनुष्यभव तक पहुँचनेदेख, वे स्वभाव, क्षेत्र, कास प्रादि सब ही अपेक्षानोंसे में कितनी कितनी बाधाओं और भापदामोंसे लड़ना तुझसे भिन्न हैं । वे म तेरे साथ भाये हैं, न तेरे साथ पड़ा है। कितनी असफलताओं और निराशाओंका जायेंगे । न वे तेरे रोग, शोक, जरा मृत्युको हरण करने मुँह देखना पड़ा है कितनी भूलों और सुधारों में से वाले हैं। वे सब नागवान हैं। इनके मोहमें पड़कर निकलना पड़ा है। जीवनका उत्कर्षमार्ग अगणित मौत. तू क्यों व्यर्थ ही अपनेको खोता है ?
के दरों से होकर गुजरता है और शोक-संतापकी वे तो क्या, यह शरीर भी, जिसपरत् इतना छायामे सदा ढका है । मनुष्यभव इसी उत्कर्षमार्ग मोहिन है, जिसकी तू महर्निश सेवा करता है, त नहीं की अंतिम मंजिल है है। यह तेरो एक कृत्ति है, जो कि प्रकृतिका सहारा यहां ही जीवको पहली बार उस वेदनाका अनुभव ले जीवन उत्थानके लिये रची गई है। इसका पोषण होता है जो उसे दुःखसे सुखकी ओर, मृत्युमे अमृत जीवन उत्कर्ष के लिये है,जीवन इसके पोषणके लिये नहीं की ओर, नीचेमे उपरकी भोर, विकल्पोंसे एकताकी है। जरा स्वचारहिन इसके स्वरूपको तो विचार । यह मोर, बाहिरसे अन्दरकी ओर लखानेको मजबूर कतना घिनावना और दुर्गन्धमय है । यह अस्थिपंजर करती है। मे बना हुआ है, माँसमे विलेपित है, मलमूत्र और यहाँ ही पहली बार उस सुबुद्धिका विकास होता कृमिकुल पे भरा है। इसके द्वारों से निरन्तर मन भर है जो इसे हेय उपादेय हित महित, निज परमें विवेक रहा है। कौन बुद्धिवर इस अपनाएगा!
करना सिखाती है। तेरा शरीर पानी के बुलबुले के समान रुणिक है। यहाँ ही पहली बार उस भलौकिक दृष्टिका उदय तेरा भायु कालगतिके माथ पण क्षण क्षीण हो रही होता है जो इसे लौकिक क्षेत्रोंसे ऊपर अलौकिक क्षेत्रोंहै और तेरा यौवन स्वप्नखोलाके समान नितान्त का भान कराती है। जो इसे शिल्पिक, नैतिक, वैज्ञा जरामें बदल रहा है। तुझे अपने भविष्यका तनिक निक और पारमार्थिक क्षेत्रोंका दर्शन कराती है। भी ध्यान नहीं । परन्तु मृत्यु निरन्तर सेरी भोर ताक यहाँ ही पहली बार अर्थशक्ति की वह प्रेरणा अनुलगाये बैठी है।
भव होती है जो इसके पुरुषार्थको भौतिक उद्योगोंमे हे मानव ! न व्यर्थही इस मनुष्य भवको म्यमनोंमें उठा अलौकिक उद्योगोंकी भोर लगानी है। सना हुमा, पाहार, निदा, मैथुन, परिमल में लगा हुमा यहाँ ही पहली बार उस भवन्याकी पावरयकता बरबाद न कर यह मनुष्यभव चिंतामणि रत्नके समान मालूम होती है जो इसे स्वच्छन्दता, सुखशीखताको महामूल्यवान, महादुर्लभ और महाकष्टसाध्य पदार्थ छोड़ यम नियम, व्यवहार रोति, संस्था प्रथा धारण है। जीवनमें रूप-प्राकार, भोग विलास, कंचन-कामिनी रनेकी प्रेरणा करती है। सबही मिल सकते हैं। परंतु मनुष्यभव मिलना बहुत वहाँ ही पहली बार वह धर्मवृक्ष अंकुरित होता है