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भनेकान्त
[फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २०६६
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भानेपर भयसे पहले ही अपने प्रागोंका परित्याग कर और मकेत अवश्य किया है जो कि अावश्यक है। क्यों देते हैं। फिर भला ऐसे दुर्बल मनुष्योंसे अहिंमा जैसे कि गृहस्थ अवस्था ऐमी कोई क्रिया नहीं होती जिममें गम्भीर तत्त्वका पालन कैसे हो सकता है अतः जैनी हिसा न होती हो। अतः गृहस्थ सर्वथा हिसाका ल्य.गी अहिंसापर कायरताका इल्जाम लगाकर उसे अन्यत्र नहीं हो मकना । इम के मिवाय, धर्म-देश-जाति और हार्य कहना निरी अज्ञानता है।
अपनी तथा अपने प्रात्मीय टम्बी जनोंकी रक्षा करने जैन शासनमें न्यूनाधिक योग्यतावाले मनुष्य में जो विरोधी हिंमा होती है उमका भी वह त्यागी नहीं अहिंसाका अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इमीलिये हो सकता। जैनधर्ममें अहिंसाके देशबाहिमा और मर्वअहिमा जिम मनष्यका माँसारिक पदार्थोस मोह घट गया अथवा अहिसा-अणुव्रत और अहिंसा-महाव्रत श्रादि है और जिसकी श्रात्मशक्ति भी बहुत कुछ विकाम प्राप्त भेद किये गये हैं। जो मनुष्य पूर्ण अहिमाके पालन कर चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकार के परिग्रहका त्याग करने में असमर्थ है, वह देश अहिंसाका पालन करता है, कर जैनी दीक्षा धारण करता है और तब वह पूर्ण इसीसे उसे गृहस्थ, अणुवती, देशवती या देशयतीके अहिंसाके पालन करनेमें ममर्थ होता है । और हम तरह नामसे पुकारते हैं क्योंकि अभी उसका साँमारिक देह- से ज्यों ज्यों श्रात्म-शक्तिका प्राबल्य एवं उमका विकास भोगोंसे ममत्व नहीं छटा है-उमकी आत्म शक्तिका पूर्ण होता जाता है त्यो त्यो अहिंमाकी पर्णता भी होती जाती विकास नहीं हुआ है-वह तो असि, मषि, कृषि, शिल्प, है। और जब अात्माको पर्णशक्तियोंका विकास हो जाता वाणिज्य, विद्यारूप षट् कर्मोंमें शस्त्यानुसार प्रवृत्ति करता है, तब आत्मा पूर्ण अहिंसक कहलाने लगता है। अस्तु, हुआ एकदेश अहिंसाका पालन करता है । गृहस्थ- भारनीय धर्मोमें अहिंसाधर्म ही सर्वश्रेष्ठ है । इसकी अवस्थामें चार प्रकारकी हिंमा संभव है । संकल्ली, पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुप परमब्रह्म परमात्म प्रारम्मी, उद्योगी और विरोधी । इनमेंसे गहस्थ सिर्फ कहलाना है। इसीलिये पाचर्य समन्तभद्रने अहिंसाको एक संकल्पी हिंसा-मात्रका त्यागी होता है और वह भी परब्रह्म कहा है *। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अस जीवों की । जैन श्राचार्योंने हिंसाके इन चार भेदों जैन शामनके अहिंसातत्त्वको अच्छी तरहसे ममझे को दो मेदोंमें समाविष्ट किया है और बताया है, कि और उसपर अमल करें । साथ ही, उसके प्रचारमें गहस्थ-अवस्थामें दो प्रकारकी हिमा हो सकती है, श्रा- अपनी मर्वशक्तियोंको लगादें, जिससे जनता अहिंसाके रम्भजा और अनारम्भजा। प्रारम्भना हिंसा कुटने, रहस्यको समझे और धार्मिक अन्धविश्वामसे होनेवाली पीसने प्रादि गृहकार्योंके अनुष्ठान और आजीविकाके घेर हिंसाका-गक्षमी कृत्यका-परित्यागकर अहिंसाकी उपार्जनादिसे सम्बन्ध रखती है; परन्तु दुमरी हिंसागही शरणम अाकर निर्भयतामे अपनी प्रात्मशक्तियोंका कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे होने विकास करने में समर्थ हो सके। पाले जीवोंके पातकी ओर संकेत करती है। अर्थात् दो
वीर सेवामन्दिर, सरसावा, जि० महारनपुर इंद्रियादि असजीवोको सँकल्पपूर्वक जान बूझकर
गहवास सेवन रतो मन्द कराया प्रवर्तितारम्भः । सताना या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये
भारम्भजां स हिसां शक्नोति न रचित नियमात् ॥ इसे संकल्पी हिंसा कहते है। गृहस्थ अवस्था में रहकर
श्रावकाचारे, अमितगतिः,६,६,७ भारम्भजा हिंसाका त्याग करना अशक्य है। इसीलिये
क पहिसा भूतानां बगति विदितं ग्रह परमं, जैन ग्रन्थों में इस हिंसाके त्यागका आमतौरपर विधान
असा तत्रारम्भोस्ल्पपुरपि र पत्राश्रमविधौ । नहीं किया है परन्तु यत्लाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी
ततस्तत्सित्यर्थ परमकल्यो अग्यममयं, हिसाषा प्रोतामामारंभवत्ववोर। भवानेवात्याची विकृतवेयोपपिरतः ॥" पावासतो निचोषाऽपि त्रायते ॥
बृहत्स्वयमस्तोत्रे, समन्तभद्रः ।