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लगता । यदि हिंसा और अहिंसाको भाव प्रधान न मान अथवा कुछ भी विरोध किये बिना सहलेना कावरता:जाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन पाप है-हिंसा है। कायर मनुष्यका बाल्मा पतित होना सकती। जैसे कि कहा भी है
है, उसका अन्तःकरण भय और संकोचसे अथवा का विवडीवचिते बोकेरन कोयमोच्चता से दबा रहता है। उसे भागत भयको चिन्ता सदा भावैकसाधनो बन्धमोबामविष्यताम् ॥ व्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने और धनादि सम्म
-सागारधर्मामृत; ४, २३ सिके विनाश होने की चिन्तासे वह सदा पीड़ित एवं अर्थात्-जब कि लोक जीवोसे खचाखच भरा सचिन्त रहता है। इसीलिये वह प्रात्मबल और मनो हुआ है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही बलकी दुर्बलताके कारण-विपत्ति मानेपर अपनी रक्षा निर्भर न होते तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता भी नहीं कर सकता है। परंतु एक सम्पष्टि अहिंसक अतः जय जैनी अहिमा भावोंके ऊपर ही निर्भर है तब पुरुष विपत्तियों के आनेपर कायर पुरुषकी तरह पबराता कोई भी बुद्धिमान पुरुष जैनी अहिंसाको अव्यवहार्य नहीं और न रोता चिलाता दी किन्तु उनका स्वागत नहीं कह सकता।
करता है और सहर्ष उनको सहनेके लिये तेम्बार राना अब मैं पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर प्राक- है तथा अपनी सामर्थ्य के अनुमारउनका धीरनासे मुजपित करना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंमा तत्वको नहीं बिला करता है--प्रतीकार करता है-उसे अपने मरने समझकर जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया जीने और धनादि सम्पत्तिके समूल विनाश होने का कोई है उनका कहना नितान्त भ्रममूलक है।
हर ही नहीं रहता, उसका पात्मबल और मनोबल अहिंसा और कायरतामे बड़ा अन्तर है। अहिंसाका कायर मनुष्यकी भाँति कमजोर नहीं होता, क्योंकि सबसे पहला गुण आत्मनिर्भयता है। अहिंसा कायरता उसका श्रात्मा निर्भय है-सप्तमयोंसे रहित है । नको स्थान नहीं। कायरता पाप है, भय और संकोचका सिद्धान्तमें सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया परिणाम है । केवल शस्त्र संचालनका ही नाम वीरता है। साथ ही, प्राचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषय नहीं है किन्तु वीरता तो आत्माका गुण हैं। दुर्बल में यहाँतक लिखा है कि यदि त्रैलोस्यको चलायमान शरीरस भी शस्त्रसंचालन हो सकता है । हिंसक वृत्तिसे कर देनेवाला वनपात प्रादिका पोर मय भी उपस्थित या मांसभक्षणसे तो करता आती है, वीरता नहीं; परंतु होजाब तो मी सम्पम्हष्टि पुरुष नि:शंक एवं निर्भय यता अहिंसास प्रेम, नम्रता, शान्ति, सहिष्णुता और शौर्यादि वह डरता नहीं है। और न अपने गानस्वमाले गुण प्रकट होते हैं।
च्युत होता है, यह सम्यग्दष्टिका ही साहस है। हबले दुर्बल प्रात्माओंसे अहिंसाका पालन नहीं हो सकता सट है कि प्रात्म निर्भयी-धीर-धीर पुरुष ही सबे काहि उनमें सहिष्णुता नहीं होती। अहिंसाकी परीक्षा प्रत्या- सक हो सकते हैं. कायर नहीं । वे तो ऐसे घोर मयादिवे चारीके अत्याचारोंका प्रतीकार करनेकी सामर्थ्य रखते सम्पतिबीचा विसंवा हति विम्याचा हुए भी उन हँसते सते सहोमेमें है किन्तु प्रतीकारकी संपविलमा समावि खामक प्रभाव में अत्याचारीके अत्याचारोंको चुपचाप
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