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________________ अनेकान्त [फाल्गुन, बीर- विसं. २ चित्रवृत्ति के द्वारा अपना हो पात करता है, दूसरे जीवों जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि आगमकी निम्न का पात होना न होना उनके भवितव्य के प्राधीन है। प्राचीन गाथासे स्पष्ट है: हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और बदि सुखस्स पो होदि बाहिरक्त्युबोगेख। दूसरी बहिरंग हिंसा । अब प्रात्मामें शानादि रूप भाव बपि दुपहिंसगो वाम होदि वावाविवषहेतु ॥ प्राणोंका पात करने वाली अशुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति विजयोइयायां-अपराजितः-६ । ८०६ होती है तब वह अंतरंग हिंसा कहलाती है। और जब हिंसा और अहिंसाके इस सूक्ष्म विवेचनसे जैनी जीवके वाम द्रव्यमाशोंका घात होता है तब बहिरग अहिंसाके महत्वपूर्ण रहस्यसे अपरिचित बहुतसे व्यक्तिहिंसा कहलाती है। इन्हींको दूसरे शब्दोंमें द्रव्यहिंसा और योंके हृदय में यह कल्पना होजाती है कि जैनी अहिंसा भाव हिंसाके नामसे भी कहते हैं । यदि तत्त्वदृष्टि से का यह सूक्ष्मरूप अव्यवहार्यहै--उसे जीवन में उतारना विचार किया जाय तो सचमुचमें हिंसा करता और नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है। अतएव स्वार्थकी पोषक है। मनुष्यका निजी स्वार्थ ही हिंमाका इसका कथन करना व्यर्थ ही है। यह उनकी समझ कारण है। जब मनुष्य अपने धर्मसे ब्युत हो जाता है ठीक नहीं है, क्योंकि जैनशासनमें हिंसा और अहिंमाका तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी चेष्टा जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय है, उसमें किया करता है। प्रात्मविकृतिका नाम हिंसा है और अल्पयोग्यतावाले पुरुष भी बड़ी यामानीके साथ उसका उसका फल दुःख एवं अशान्ति है । और आत्मस्वभाव अपनी शक्ति के अनुसार पालन कर मकते हैं और अपने का नाम अहिंसा है तथा मुख और शान्ति उसका फल को अहिंसक बना सकते हैं । साथ ही, जैनधर्ममें अहिं. हैअर्थात् जब आत्मामें किसी तरहकी विकृति नहीं होती माका जितना सूक्ष्मरूप है वह उतना ही अधिक व्यवचित्त प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्त रहता है उसमें हार्य भी है। इस तरह का हिंसा और अहिंसाका स्पष्ट क्षोभकी मात्रा नज़र नहीं आती, उसी समय श्रात्मा विवेचन दूसरे धर्मों में नहीं पाया जाता, इसलिये उसका अहिंसक कहा जाता है । द्रव्यहिंसा के होने पर भावहिमा जैनधर्मकी हिमाके आगे बहुत ही कम महत्व जान अनिवार्य नहीं है उसे तो भाव हिसाके सम्बन्धसे ही पड़ता है। हिंसा कहते हैं, वास्तवमै द्रव्याहिमा तो मावहिंसासे जैनशामन में किमीके द्वारा किमी प्राणीके मर जाने खुदी ही है। यदि द्रव्यहिंसाको भावहिंसासे अलग न या दुःखी किये जानेस ही हिंसा नहीं होती। संसारमें किया जाय तो कोई भी जीव अहिंसक नहीं हो सकना, सब जगह जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग-परिणति वाले साधु मरते भी रहते हैं, परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिमहात्मा भी हिंसक कहे जायगे; क्योंकि पूर्ण अहिंसाके घातको हिंसा नहीं कहता; क्योंकि जैनधर्म तो भावपालक योगियों के शरीरसे भी सूक्ष्म वायुकायिक आदि प्रधान धर्म है इसीलिये जो दूसरों की हिंसा करनेके भाव सपमेवात्मवासमा हिलल्लामा प्रभावात् । . नहीं रखता प्रत्युत उनके बचानेके भाव रखता है उससे मारवंतरावान्यु सालाहाबाद। : दैववशाल सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीवके -सर्वार्थसिदिमें उद्धृत, पृ०२१ द्रव्य प्राणोका वध होगाता है तो उसे हिंसाका पाप नहीं
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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