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________________ वर्ष ३, किरण ५] बहिसा-तच आत्म परिणामोकी विकृतिमे-जो अपने अथवा मरोंके है तो जरूर वह हिंसक कहलाता है और इसका मागी द्रव्यप्राणों का धान हो जाता है उसे द्रव्यहिमा कहते हैं। भी होता है। इसी बातको जैनागम सा रूपसे दो . हिंसा दो प्रकार की जाती है-कषायसे और घोषणा करता है:प्रमादसे । जब किमी जीवको क्रोध, मान, माया और पचासम्मिपादे इरिषासमिएस विग्गमहा। . लोभादिके कारण या किमी स्वार्थवश जान बूझकर नाबादेज विजो मरेज्जतं बोगमासेन्ज सनाया जाता है या सनाने अथवा प्राणरहित करने के बहि तस्स तरिमितो पंचो सुतुमोवि देसिदो समये। लिये कुछ व्यापार किया जाता है उमे कपाघमे रिमा -सर्वार्थसिद्धौ पूज्यपादेन उद्धृतः कहते हैं । और जब मनुष्यकी श्रालस्यमय अमावधान अर्थात्- जो मनुष्य देख भालकर मावधानीसे मार्ग एवं अयस्नाचारपूर्वक प्रवृत्तिमे किमी प्राणीका पधादिक पर चल रहा है उसके पैर उठाकर रखने पर यदि कोई हो जाता है तब वह प्रमादमे रिमा कही जाती है। इससे जन्तु अकस्मात् पैरके नीचे पा जाय और दप कर मर इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य जाय तो उस मनुष्यको उम जीवके मारनेका थोड़ा सा बिना किमी कषायके अपनी प्रवनि यत्नाचारपर्वक भी पाप नहीं लगता है। मावधानीमे करना है उस ममय यदि दैवयोगमे अचा- जो मनुष्य प्रमादी है-अयलाचार पूर्वक प्रवृत्ति नक कोई नीव श्राकर मर जाय तो भी वह मनष्य करता है-उसके दाग किमी प्राणीको हिमा भी नहीं हुई हिंसक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उम मनुष्यकी है तो भी यह 'ममावयुक्तस्तु सदैव हिंसक' के वचनानुप्रवृत्ति कषाययुक्त नहीं है और न हिमा करने की उम. सार हिमक अवश्य है - - उसे हिंसाका पाप जरूर लगता की भावना ही है । यद्यपि द्रव्यहिमा जम्र होती है परन्तु है। यथा-- तो भी वह हिंसक नहीं कहा जा सकता, और न जैन- मरदु यो जायदु जीयो भयदाचारस विडिया हिंसा । धर्म इम प्राणिगतको हिमा कहता है। हिमात्मक परि- फ्यवस्स थरिथ बंधो हिसामितेश समिदस्म ॥ णति ही हिमा है, केवल द्रव्यहिमा हिमा नहीं कहलाती, -प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३,१७ द्रव्यहिमाको तो भावहिमाके सम्बन्धम ही हिंमा कहा अर्थात्-तीय चाहे मरे,अथवा जीवित रहे,असावजाता है। वास्तवमें हिंमा तब होती है जब हमारी परि- धानीम काम करने वालेका हिंसाका पाप अवश्य लगता णनि प्रम दमय होती है अथवा हमारे भाव किनी जीवा है, किंतु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानीसे अपनी को दुःन्त्र देने या मताने के होते हैं। जैसे कोई ममर्थ प्रवृत्ति करना है उससे प्राणि-राध हो जाने पर भी हिंसा डाक्टर किमी रोगीको नीरोग करनेकी इच्छाम ऑपरे. का पाप नहीं लगना-यह हिंमक नहीं कहला सकता, शन करता है और उममें दैवयोगसे रोगीकी मृत्यु हो क्योंकि भावहिं नाकं बिना कोग द्रव्यहिमा हिंमा नहीं जाती है तो वह डाक्टर हिंमक नहीं कहला सकना, और कहला सकी। न हिमाके अपराधका भागीही हो मकता है। किन्तु सकपायी व तो पहले अपना ही घात करता है, यदि डाक्टर लोभादिके वश जान बूझकर मारनेके इरादे उसके दूमरीकी रक्षा करने की भावना ही नहीं होती। से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगीकी मृत्यु हो जाती यह तो दूसरोका पात होने से पहले अपनी कलापित .
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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