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________________ मनुष्य जातिके महान् उद्धारक [ले-श्री बी. एल. मराफ, बी. ए एलएल. बी, वकील, सागर ] समाजके तत्कालीन हवन-कुण्डकी प्रचण्ड हुताशन की पुकार पर त्रिशला मन्दन भौर शबोधन-मारके पल "तो नरमेधके वास्ते भी तैयार थी । यज्ञके अनर्थ- नोंने कुण्डग्राम और कपिन वस्तुकी वासोन्मुखी प्रमा कारों टीकाकारोंने गीताकी ओर भाँख उठाकर देखनेकी को पुनीत किया तो क्या पावर्ष ? भावश्यकता तक नहीं समझी। मूक जीवोंके कलेवरमे भास्मान्वेषण तथा सत्यान्वेषयाके दुर्गम पथके रमव ही सन्तुष्ट होनेकी भावना तब अपनी चरम सीमा पर पथिक विघ्न वाधानों के बीच में भी अपनेको भूखे नहीं। थी । वैशाली, मल्ल, शाक्य, कौशल, मगध और मिथिला यद्यपि थोड़ा अन्तर भले ही रहा, एकने तात्वारिक जैसे गण राज्यों तथा प्रजातन्त्र शासनोंके होते हुए भी मात्रा-द्वारा चिकिरमाकी तो दूसरने शास्वतिक प्रपोगों समाजका वैषम्य सामने था । मनुष्यको हृदय लगानेमें का उपयोग किया। एक यदि पतिकार्य पयानुगामी बाधाभूत अपनेको श्रेयस्कर समझनेवाले प्राणियोंकी हुए तो दूसरे 'चुरस्य चाग निशिता दरत्यया' पर भस्त भावना उहण्डतामे सिर उठाये हुए थी। सस्यता चलकर वहाँ जनसमूहको ले जानेमें प्रयत्नशील हुए। के ऊपर आवश्यकतामे अधिक प्रावरण था, जो उसे विश्वको दुःखोंमे छुदानेका दोनोंने निष्कपट प्रयास प्रकाशित ही नहीं होने देता था। सब इस ढकी हुई किया । एकने यदि अचेल ब्रह्मचर्य व्रतधारण द्वारा मा आडम्बरित वस्तुको ही नमन करने लग गये थे। सस्यना नवजीवनको अन्तिम दुईजनाको तिलांजली देवी और और मोक्षकी ओर दौड़ लगानेवाले अपनी धुनमें मस्त उसपर विजयी हुए तो दूसरने उनके शरीरपर होते थे। केवल तपस्याही मोच सम्पादन भने तीन करा हुए भी उसमें सम्मोहको स्थान नहीं दिया । एकोपसके, निरा शान भी मजे ही उस अनन्त के साथ संबंध बहारको भी अप्रधान बताते हुए मनमाकृत कर्ममें ही जोड़नेको पर्याप्त न हो, केवल श्यमान, खोखली भक्ति हिंमा देवी तो दूसरेने मन्शाके पैमानेको तिरस्कृत करते और चन्दन-चर्चन भी भय सत्यके साथमें साक्षात् हुए कार्यफल-मात्रम हिंसा देखी। करानेमें समर्थ न हो, जीवोंके प्राणपर पैर रख उनके निविद पाकुलित निमिरके युग अवसान गाद अस्थि-माँसमे पुष्ट तथा समृरियाली होने की वासना प्रभात-पत्नी उषाने जगद्वन्ध सिद्धार्थ सुत के अवतरित भले ही अमोप-कर हो, पर अपनी दौर कम करके खड़े होनेपर अपने मुखारविन्दपर प्रसाना मास जातिमा तो पीछे देखनेका इन धावकोंको अवकाश नहीं था प्रदर्शित की तो क्या भाश्चर्य ? यदि इन विमृतियों के यदि ऐसे समयमें प्रकृतिने स्वतः त्रस्त हो अबतारके सिद्धान्तों और कृतियोंने विश्वविजय की बोता लिये भावान उठाई तो स्वाभाविक ही था। यदि प्रकृति माय?
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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