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प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी 'समीक्षा'
[ सम्पादकीय ]
१
अब मैं प्रो० साहबकी उस समीक्षा की परीक्षा करता हूँ जो उन्होंने उक्त 'सम्पादकीय - विचारणा' पर लिखी है और उसके द्वारा यह बतला देना चाहता हूँ कि वह कहाँ तक निःसार है:
( सम्बन्ध वाक्य)
प्रो०
साहब ने अपनी मान्यता एव धारणाको सत्य सिद्ध करने और उसे दूसरे विद्वानोंके गले उतारने के लिये अपने पूर्व लेख ( अनेकान्त वर्ष ३, किरण ४) में जिन युक्तियों (मुद्दों) का आश्रय लिया था उन्हें श्रापने चार भागों में बाँटा था । अर्थात् -
( १ ) प्रथम भाग के चार उपभागों में कुछ दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्रपाठोंका उल्लेख करके यह नतीजा निकाला था कि -" इत्यादिरूपमें राजवार्तिकमें तवार्थसूत्रोंके पाठभेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है। इससे यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई दूसरा पाठ अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं किया ।"
(१) दूसरे भाग में स्वयं ही यह शंका उठाकर कि " सूत्रपाठ में भेद होने का जो अकलकने उल्लेख किया है उससे यही सिद्ध होता है कि उनके सामने कोई दूसरा सूत्रपाठ था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे लेकिन इससे यह नहीं कहा जासकता कि वह सूत्रपाठ तत्वार्थाधिगम भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई दूसरा ही पाठ रहा हो।" और साथ ही यह बतलाकर कि अकलंक के सामने पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि मौजूद थी तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको सामने रख कर ही राज
वार्तिकको लिखा है, ” शब्दसादृश्यको लिये हुए कुछ तुलनात्मक उदाहरण यह सिद्ध करनेके लिये दिये थे कि 'राजवार्तिककारने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका भी काफी उपयोग किया है। और उनके द्वारा अपनी इस दृष्टि एवं धारणाको व्यक्त किया था कि जो बातें सर्वार्थसिद्धिमें नहीं अथवा सक्षेपसे पाई जाती है और भाष्य में हैं अथवा कुछ विस्तारसे उपलब्ध होती हैं, वे सब राजवार्तिक में प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यसे ही ली गई हैं।
(३) तीसरे भाग में “ इतना ही नहीं" इन शब्दों के साथ एक कदम आगे बढ़कर यह भी प्रतिपादन किया था कि "राजवार्तिककारने तत्वार्थ भाष्यकी पक्तियाँ उठा कर उनकी वार्तिक बनाकर उन पर विवेचन किया है । उदाहरण के लिये 'श्रद्धासमयप्रतिषेधार्थं च ' यह भाष्यकी पंक्ति है ( ५- १); इस अद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च' वार्तिक बनाकर इस पर कलंकका विवेचन है ।" साथ ही, यह सूचना भी की थी कि इसी तरह अकलकदेवने भाष्य में उल्लिखित काल, परमाणु श्रादिकी मान्यताओं पर भी यथोचित विचार किया है । और उनसे अपने कथन की संगति बैठानेका प्रयत्न किया है । अवश्य ही कहीं विरोध भी किया है ।" और फिर ( तदनन्तर ही ) यह