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________________ ०३० अनेकान्त नतीजा निकाला था। कि - "इससे ऊपरकी ( नं० २ में वर्णित ) शंकाका निरसन हो जाता है, और इससे मालूम होता है कि कलंकके सामने कोई दूसरा सूत्र पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तस्वार्थ भाष्य मौजूद था, जिसका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा वार्तिक के विवेचनरूपमें यथास्थान किया है ।' (४) चौथे भागमें कुछ उद्धरणों को तीन उपमार्गों (क, ख, ग ) में इस प्रतिज्ञा के साथ दिया था कि, "उनमें कलकदेवने भाष्य के अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहुमान का भी प्रदर्शन किया है ।" उनमें से पहला उद्धरगा है "उक्तं हि अप्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणागुणा इति;" दूसरा उद्धरण है - "कालोपसंख्यानमिति चेन वक्ष्यमाणलक्षणत्वात्स्यादेतत कालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थोऽस्ति तचास्ति यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड् द्रव्याणि इत्युक्तं श्रतोस्योपसंख्यानं कर्तव्यं इति ? नन्न, किं कारणं वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" और तीसरा उद्धरण है राजafrica न्तिम कारिकाका, जो ग्रन्थके अन्त में 'उक्तंच’रूपसे दी हुई ३२ कारिकाओंके अनन्तर ग्रन्थकी मासि को सूचित करने वाली है । यद्यपि वह मुद्रित प्रतिमें नहीं पाई जाती परन्तु पूना आदिकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उपलब्ध है और वह इस प्रकार है- " इति तस्वार्थसूत्राणं भाष्यं भाषितमुत्तमैः । यत्र संनिहितस्तर्कः म्याथागमविनिर्णयः ॥” इस तरह पिछले दो उद्धरणों में प्रयुक्त हुए 'भाष्ये' और 'माध्यं' पदोंका वाच्य ही उक्त श्वेताम्बरीय तस्वार्था - [आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ होता है ।" साथ ही, यह भी बतलाया था कि श्वेतास्वर विद्वान् सिद्धसेनगणि भी इस (भाष्य ) का 'ईत्प्रवचन नाममे उल्लेख करते हैं ।" और प्रमाण में मिसनकी तत्वार्थवृत्तिका यह वाक्य उद्धृत किया था - " इति श्रीमदर्हस्प्रवचने तवार्थाधिगमें उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिएयां च टीकार्या सिद्धसे नगणिविरचितायां अनगारागारिधर्म प्ररूपकः सप्तमोSध्याय: । " गमभाष्य सुझाया था और पहले उद्धरण में प्रयुक्त हुए 'प्रवचने' पदके विषय में स्पष्ट लिखा था कि "यहाँ प्रवचनसे तत्वार्थ भाष्यका ही अभिप्राय मालूम र अन्तमें उक्त कारिकाका यह अर्थ देकर कि "उत्तम पुरुषोंने तत्वार्थ सूत्रका भाष्य लिखा है, उसमें तर्क मनिहित है और न्याय ग्रागमका निर्णय है" यह नतीजा निकाला था कि "कलंकदेव तो तस्वार्थाधिगम भाष्यंसं अच्छी तरह परिचित थे, और वे तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ताको एक मानते थे ।" प्रो० साहब के इम युक्ति- जाल से वह बात सिद्ध होती है या कि नहीं जिसे आप सिद्ध करके दुमरीके गले उतारना चाहते है, इतनी बानका विचार करने के लिये ही उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' लिखी गई थी; जैसाकि उसके शुरूके निम्न प्रस्तावना वाक्य से भी प्रकट है— "यह सब बात जिम आधार पर कही गई है अथवा जिन मुद्दों आदि (उल्लेखों) के बल पर सुझाने की चेष्टाकी गई है उन परसे ठीक -बिना किमी विशेष बाधा – फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस विचारणाका मुख्य विषय है ।" और इसलिये 'विचारणा' में प्रो० साहब की उक्तियोंकी जाँच करके उन्हें सदोष एवं बाधित मिद्ध करते हुए इतना ही बतलाया गया था कि उनके आधार पर प्रो० साहब जो नतीजा निकालना चाहते हैं वह नहीं निकाला जा सकता। इसके अतिरिक्त 'विश्वा
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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