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________________ वर्ष ३, किन ] हरिमद-सरि वता थी । दोनों वादी प्रतिवादी भी नियम तुमार नाश करना चाहते थे। किन्तु कहा जाता है कि जब शास्त्रार्थ के लिये तैयार हो गये और वाद विवाद प्रारंभ यह घटना प्राचार्य जिनमट सूरिजीको शत हुई तो हुना। उन्होने क्रोधको शांत करने के लिये अपने दो शिष्यों के प्रथम बौद्ध कुलपतिने पूर्व पक्ष के रूप "क्षणवाद" तीन प्राकृत गाथाएँ मे नी । कहा जाता है कि वे का प्रबल युक्तियों, हेतुओं और अनुमानों द्वारा पर्व "याएँ इस प्रकार हैं:ममर्थन किया और अजेयरूप देनेका भरपूर प्रया' गुण-पेण-प्रगिसमा, सीहाऽयन्दा पता पिषा सत्ता । किया। तदन्तर हरिभद्रसूरि उठे और मंगला चग्गा मिहि जातिणि माइसुया पापणसिरिमोष पइ मज्जा। करने एवं राना तथा मभाको आशीर्वाद देने के बाद जय विजया य सहोयर धरणो बच्छी पवा पई भन्ना। शांनि पूर्वक किन्तु प्रग्वर तर्को द्वाग क्रमशः क्षणवाद मणविपणायित्तियउता अम्मम्मि सत्तमए ॥१॥ का खडन करते हुए कुलपनिकी मारी शब्दाडम्बग्मय गुणचंद वाणमंतर समराइक-गिरिलेखपायो उ । नों को इस प्रकार अस्त व्यस्त कर दिया, जिम प्रकार एकस्स तमो मोक्खो बीयस्स प्रयन्त संसारो॥१॥ कि वायु मेकि प्रवाहको कर देता है । अन्नमें "वस्तु इन गाथाओंका यही तात्पर्य है कि क्रोधके प्रतापसे स्थिनि नित्यानित्यात्मक है" हमी मिद्धान्तको मर्वोपरि दो जीव नौ जन्म तक मा में रहने पर भी अंतमें एक ठहगया । अपने पक्षको प्रबल रीप्तिमे मिद्ध कर दिया। को तो मुक्ति प्राम होती है और दूमरेका अनन्त संसार अन्ततोगत्वा प्रतिपक्षी इम सम्बन्धमें अपने आपको बदनाना है । अतः क्रोध के बराबर दूसरा कोई शत्रु नहीं अनाथ और श्रमदाय मा अनुभव करने लगा; एवं है। इमनिये कपायगणनाके प्रारम्भमें ही इसका नाम "मौनं स्वीकृति-जपणं" के अनुमार पराजय स्वीकार निर्देष है । कर ली। माथायीका मनन करते ही हरिभद्रसूरिका क्रोध मम्पर्ण ममा स्नब्ध और शात थी। "कुलपतिः नत्काल शाँत होगया; उन्हें अपने इम हिसाकाँडसे भयपरामतः" सभासदोंके इन शब्दों द्वाग बह नीरव शांति कर पश्चात्ताप हुआ और वहाँसे वे तत्काल चित्रकूटकी भंग हुई । कुलपति उठा और पूर्व प्रतिज्ञानुमार उसने ओर मुड़ । तीब्रगतिसे चलते हुए गुरुजीके समीप पहुंचे गरम २ तेल के कड़ाहेमें गिरकर मत्युका आलिंगन कर और चरणाम गिरकर प्रायश्चित्त लेते हुए पापोंकी श्रालिया। इस प्रकार जब पांच छः के लमभग बौदोका लोचना की। उन तीन गाथाओंके आधारसे ही बादमें तेलके कड़ाहेमें गिर कर होम हो गया, तब सम्पूर्ण बौद्ध हरिभद्र सूग्नेि प्रशमरसपूर्ण “समराइच कहा" नामक संसारमें हाहाकार मच गया। बौद्ध शासन-रक्षिका कथा-ग्रंथकी रचना की; जोकि कथा-साहित्यमें विशिष्ट तारादेवी बुलाई गई; उसने वही कहा कि हम और गौरव पर्ण प्रथ-रल है। परमहसकी हत्याका ही यह परिणाम है; अतः इमामे राजशेम्वर सूरिने अपने प्रबंधकोशमें शामार्य होने कल्याण है कि सब बौद्ध यहांसे चले जाय । की बात न लिखकर केवल मंत्र-मलद्वारा ही बौदोका हरिभद्र परिका क्रोध अभी तक शांत नहीं हुआ नाश करने के संकल्पकी बात लिखी है। था; वे कोषसे प्रचलित हो र थे और और मी बौदोका इसी प्रकार सम्वत् १८३४ में हुये अमृतधर्म गणि
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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