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भनेकान्त [पारिवन, वीर निर्वाण सं०२४६१ समान हुई ॥२०-२१ ॥ पौरपाट (परवार ) वंशरूप कि वहाँके पाटोदीजीके मन्दिर में भूपालचतुर्विभाकाशका चन्द्रमा और समुद्धर श्रेष्ठीका पुत्र शतिकाकी टोका और जिनयज्ञकल्प सटीक महीचन्द्र प्रसन्न रहे, जिसकी प्रार्थनासे प्राशाधरने मौजद हैं। पहले प्रन्थमे १४ पत्र और ४०० श्लोक यह श्रावकधर्मका दीपक ग्रंथ बनाया और जिसन हैं। उनका प्रारंभ इस प्रकार होता हैइसकी पहली प्रति लिखी ॥ २२॥
प्रणम्य जिनमज्ञानां सज्ञानाय प्रचल्यते।
आशाधरो जिनस्तोत्रं श्रीमपाजकवेः कृति ॥१॥ इष्टोपदेश-टीकाकी प्रशस्तिका
अन्तमे लिखा हैभावार्थ
उपशम इव मूर्तिः पूतकीर्तिः स तस्मा
दजनि विज(न)यचन्द्रः सचकोरैकचन्द्रः । विनयचन्द्र मुनिके कहनेसे और भव्योंपर दया ।
जगदमतसगर्भाः शाखसन्दर्भगर्भाः करके पं० श्राशाधरने यह इष्टोपदेश-टीका बनाई।
शुचि चरितसहिश्नो (वरिष्णो यस्य धिन्वन्ति वाचः साक्षात् उपशमकी मूर्तिके तुल्य सागरचन्द्र मुनीन्द्रके शिष्य विनयचन्द्र हुए जो सज्जन चकोरोंके लिए
विनयचन्द्रस्यार्थमित्याशावरविरचिता भूपाजचतुर्विचन्द्र हैं, पवित्रचरित्र हैं और जिनकी वाणी शतिजिनेन्द्रस्तुनेष्टीका परिसमाप्ता। ममतसगर्भा और शास्त्रसन्दर्भगर्भा है।
दूसरे ग्रंथमे १०२ पत्र हैं और श्लोक संख्या
२५०० है । उमका प्रारंभ इस प्रकार होता है__ जगद्वन्ध श्री नेमिनाथकं चरणकमल जयवन्त
नत्वा परापरगुरुमन्दधियामर्थनत्वसंवित । हो, जिनके पाभयसे धूल भी राजाओंके सिर पर
विधेल्पशो निबन्ध स्वकृतेर्जिनयज्ञकल्पस्य ॥ चढ़ती है ॥३॥
अन्तमें लिखा हैपरिशिष्ट
इत्याशाधरदृब्धे जिनपज्ञकल्पनिबन्ध कल्पदीपक
नाग्नि षष्ठोध्यायः ॥ उक्त लेखके छप चुकने के बाद मैं अपने कुछ हत्याशाधर विरचितो जिनयज्ञकल्पनिबन्धो कल्प. पुराने काराजात देख रहा था कि उनमें स्व० पं० दीपको नाम समाप्तः । संवत् १४१५ शाके १३६० वर्ष पन्नालालजी वाकलीवाल को भेजी हुई कुछ अन्य माघ वदि = गुरुवासरे । प्रशस्तियां मिलीं, जो उन्होंने जयपुर के कई पुस्तक भंडारोंसे नकल करके भेजी थीं । उनसे पता चला
* यह लेख 'दि. जैन पुस्तकालय' सूरतसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली 'सागार धर्मामृत-भाषा-टीका' की भूमिकाके लिये लिखा गया है। -लेखक