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________________ साहित्य- परिचय और समालोचन काविक, चीरनिर्वाण सं० २४६६] कर विशेषरूपसे सम्मानित भी किया है। ऐसी हालतमें आपकी सम्पादन योग्यता के विषय में अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। इस ग्रन्थके साथ में प्रो० साइबकी ५६ पृष्ठों की अंग्रेजी प्रस्तावना देखने योग्य है, जिसका हिन्दी सार भी पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीसे लिखाकर साथमें लगा दिया गया है और इससे हिन्दी जानने वाल भी उससे कितना ही लाभ उठा सकते हैं । प्रस्तावना में (१) सम्पादनोपयुक्त सामग्री (२) मूलका संगठन (३) मूलके रचयिता (४) जटासिंहनन्दि आचार्य, (५) जटामिंहनन्दीका समय और उनकी दूसरी रचनाएँ, इन विषयों पर प्रकाश डालनेके बाद (६) बरांग चरितका आलोचनात्मक – गुणदोषनात्मक और तुलनात्मक परिचय कराया गया है, जिसमें ग्रन्थ-विषयका सार काव्यके रूपमें धर्मकथा, ग्रंथमेंसे दान्तिक नवादानुवादात्मक स्थलोंका निर्देश, तत्का लीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितिका दिग्दर्शन, अश्वघोष और जटिल, बराङ्ग चरित और उत्तरकालीन प्रन्थकार, प्रन्थकी व्याकरण सम्बन्धी विशेषताएँ, प्रन्थके छन्द और ग्रन्थकी रचनाशैली जैसी विषयोंका समावेश किया गया है और अन्त में (७) दूसरे चार वरांग-बरितोंका परिचय देकर प्रस्तावनाको समाप्त किया है। प्रस्तावना के बाद सर्ग क्रमसे प्रन्थका विषयानुक्रम दिया है । प्रन्थके पदोंकी वर्णानुक्रम सूची भी ग्रन्थ में लगाई गई है । इनके अतिरिक्त सर्गक्रमसे पयोंकी सूचनाको साथमें लिए हुए कुछ महत्वकी टिप्पणियां (Notes) भी अंग्रेजीमें अलग दी गई हैं। और ग्रन्थमें पायेजानेवाले नामोंकी भी एक पंचक अनुक्रमणिका लगाई गई है। इस तरह प्रन्थके इस संस्करणको बहुत कुछ उपयोगी बनाया गया है। छपाई सफाई अच्छी और गेट अप भी ठीक हैं। ग्रन्थ सब तरह से संग्रह करने योग्य है। प्रन्थके इस उद्धार कार्यके लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवादक पात्र हैं । हाँ, प्रन्थका मूल्य अधिक नहीं तो कम भी नहीं है । खेद है कि माणिकचंद ग्रंथमालाको दिगम्बर जैनसमाजका बहुत ही कम सहयोग प्राप्त है। उसकी आर्थिक स्थिति बड़ी ही शोचनीय है, ग्रंथ बिकते नहीं, उनका भारी स्टाक पड़ा हुआ है। इसीसे वह अब अपने ग्रंथोंका मूल्य कम रखने में असमर्थ जान पड़ती है। दिगम्बर जैनोंका अपने साहित्यके प्रति यह प्रेम और उपेक्षाभाव निःसन्देह खोदजनक ही नहीं, बल्कि उनकी भावी उन्नतिमें बहुत बड़ा बाधक है। भारत है समाजका ध्यान इस ओर जायगा, और वह अधिक नहीं तो मन्दिरोंके द्रव्यसे ही प्रकाशित ग्रंथोंसे शीघ्र खरीद कर उन्हें मन्दिरोंमें रखनेकी योजना करेगा, जिससे अन्य ग्रंथोंके प्रकाशनको अवसर मिल सके। (३) तस्वार्थसूत्र - (हिन्दी अनुवादादि सहित ) मूललेखक, आचार्य उमास्वाति । धनुवादक और विवेचक, पं० सुखलालजी संघवी, प्रधान जैमदर्शनाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस । सम्पादक पं० कृष्णचन्द्र जैनागम दर्शन - शास्त्री, अधिष्ठाता श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस । तथा पं० दलसुख मानबणिया, न्यायतीर्थ, जैनगमाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस । प्रकाशक श्री मोहनलाल दीपचन्द्र चोकसी, मंत्री
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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