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________________ . अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २५६ वावमानोऽपि न गच्छेत् जैन मन्दिरम्" एक कल्पित जिमका कथित नहीं समझ सकूँगा, उसका तत्काल उति हैं। सामने ही जिन प्रतिमा दिखलाई पड़ी और शिष्य हो जाऊंगा। उमी ममय नम्रता पूर्वक बोल कि जैन दर्शनके प्रति विद्वेषकी सहसा झटिति मुँहसे "माताजी! मुझे अपना शिष्य बना लीजियेगा और निकल पड़ा कि: कृपया इस गाथाका अर्थ ममझाइयेगा।" ज्ञान चारित्र कपुरेव तवाच स्पाई मिटान भोजनम् । सम्पन्न आर्याजीने ममझाया कि “दीर्घ नपस्वी भगवान महिकोटरसंस्थेनौ तहर्मवति शाहलः॥ महावीर स्वामी के चारित्र क्षेत्रमं स्त्रियांका पुरुषोंको दीक्षा अर्थात्-तुझारा शरीर स्पष्ट ही मिष्टान्न भोजन के देनेका श्राचार नहीं है। यदि आपको यह परम पवित्र प्रति ममत्वभाषको बतला रहा है। क्योंकि यदि श्रादर्श संयम धर्म ग्रहण करना है तो इमी नगरमें स्थित प्राचार्य प्रवर श्री जिनभट जी मुनिके पाम पधारिये वे कोटरमें अमि है, तो फिर यह हरा भरा कम रह मकता आपको अनगार धर्मकी दीक्षा देंगे"। हरिभद्रने उनकी अाज्ञाको शिरोधार्य किया और आर्याजीके साथ साथ हाथीके निकल जानेपर तत्पश्चात् हरिभद्र अपने दीक्षा ग्रहणार्थ प्रस्थान किया। मार्गम वही जैन मन्दिर पर पहुंचे। मिला जिमके शरण ग्रहणमं हरिभद्रका जीवन मदोविनीत हरिभद्र न्मत्त हाथीम मुर्गक्षत रह सका था । पुनः वही जिन एक दिनकी बात है कि विप्रवर हरिभद्र राजमहल प्रतिमा यि गांचर हुई। हरिभेदम इमममय इन्हें उममें से निकलकर अपने घरकी ओर जारहे थे; मार्ग में एक वीतगगत्वमय शांतरसकी प्रतीत हुई। नत्काल मुवमें | उपाश्रय पड़ता था। वहापर कुछ जन साचिए ध्वनि प्रस्फुटित हुई कि "वपुरेव तवाऽचष्टे भगवन् । अपना स्वाध्याय कर रही थीं। स्वाध्यायकी बनी हरि वीतरागताम् ॥" वहाँपर कुछ समय ठहरकर हरिभद्रने भद्रके कर्णगोचर हुई और उन्हें सुनाई दिया कि एक भक्तिरस परिपूर्ण स्तुति की और तत्पश्चात् श्रार्या जीके साध्वी: भाथ श्री जिनभट बोके समीप पहुँचे और मुनि धर्मकी "चकी दुगं हरि षणगं, पणगं चकीण केसवो चकी। जैन दीक्षा विधिवत् विशुद्ध हृदयस ग्रहण की। कैसब बाकी केसब दुचकी, केसव चक्की प॥ स्वय हरिभद्र सरिने अपनी आवश्यक सूत्रकी टीका इस प्रकार च-पाचुर्यमय छन्दका उच्चारण कर के अन्तम अपने गच्छ और गुरुके सम्बन्धम इस प्रकार रही है। इन्हें यह बन्द कौतुकमय प्रतीत हश्रा और उल्लेख किया है:-- अर्थका विचार करनेपर भी कुछ समझ नहीं पाया, "समाता चेयं शिप्यहिता नामावश्यकटीका, कृतिः इसपर वे स्वयं उपाभयमें चले गये और श्रार्याजीसे मिनाम्बराचार्यजिनभटमिगदानुसारियो विद्याधरकुखबोले कि इस छन्दमें तो खूब चकचकार है। आर्याजीने तिलक-प्राचार्य जिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो बाकिनीमह. उत्तर दिया कि भाई ! अबोध अवस्था में तो इस प्रकार सरासूनोरल्पमतेराचार्य हरिमद्रस्य ।" इस उल्लेख परसे पहले पहल आश्चर्यमय नवीनता प्रतीत होती ही है। निश्चित रूपसे ज्ञात होता है कि हरिभद्र सरिके जिनभटजी इसपर उनें अपनी वह भीष्म प्रतिक्षा याद हो आई कि गच्छपति गुरु थे, जिनदत्तजी दीक्षाकारीगुरु ये, याकिनी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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