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हरिमन-सरि
महत्तग धर्मजननी माता थीं, विद्याधर गच्छ और श्वे- नामके दो भगिनी-पुत्र (भाणेज) थे। ये दोनों किसी ताम्बर मम्प्रदाय था।
कारण वशात् वैराग्यशील होकर अनगार-धर्मकी दीक्षा प्राचार्य हरिभद्र सूरिने याकिनी महत्तराजीके प्रति ग्रहणकर इनके शिष्य हो गये थे। प्राचार्य हरिभद्र अत्यन्त भक्ति कृतज्ञता, लघता, श्रद्धा और पुत्रभाव सूरिने व्याकरण, साहित्य, दर्शन एवं तत्त्वज्ञान प्रादि प्रदर्शित करने के लिये अपनी अनेक कृतियोंमें अपनेको विषयोंमें इन्हें पूर्ण निष्णात बना दिया था। किन्तु 'याकिनी महत्तरा सूनु' के नामसे अंकित किया है, फिर भी इनकी इच्छा बौद्ध विद्या पीठमें ही जाकर बौद्ध जैमा कि उनके द्वारा रचित श्री दशवकालिकनियुक्ति दर्शनके गम्भीर अध्ययन करनेकी हुई। उस समयमें टीका, उपदेशपद, पचसूत्रटीका, अनेकान्त जयपताका, मगध प्रांतकी ओर बौद्धोका प्रबल प्रभाव था। मगध ललिताविस्तरा और आवश्यक निर्यक्ति टीका श्रादि आदि प्राँतकी ओर अनेक विद्याकेन्द्र थे। एक विद्या. पवित्र कृतियों द्वारा एवं अन्य ग्रन्थकारों द्वारा रचित पीठ तो इतना बड़ा था कि जिसमें १५०० अध्यापक ग्रन्थोंसे मप्रमाण सिद्ध है।
और १५००० छात्र थे। उस समयमें बौद्धोंने शुष्क
तर्क-क्षेत्रमें अपना अत्यधिक प्राधिपत्य जमा रखा था। आचार्य हरिभद्र
हम और परमहंस सदृश विद्वानोंका ऐमी स्थितिमें उस अब विप्रप्रवर हरिभद्रसे अनगार-प्रवर हरिभद्र हो
श्रोर श्राकर्षित हो जाना स्वाभाविक हो था। यद्यपि गये । पहले गन पुरोहित थे, अब धर्म-पुरोहित हो गये ।
१. प्राचार्य हरिभद्र स्वय बौद्ध दर्शनके महान् पपिडत और ये वैदिक माहित्य और भारतीय जैनेतर साहित्य-धाराके
अमाधारण अध्येता थे, जैसा कि उनके उपलब्ध ग्रंथोंमें तो पूर्ण पण्डित और अद्वितीय विद्वान थे ही। अतः
उन द्वारा बौद्ध दर्शनपर लिखित अंशसे सप्रमाण सिद्ध • जैन साहित्य और जैन दर्शनके श्राधार भूत, ज्ञान,
माना है। फिर भी हँस और परमहंसकी बौद्ध विद्यापीठमें ही दर्शन और चारित्ररूप त्रिपदीके भी अल्प समयमें ही
जाकर बौद्ध दर्शन के अध्ययन करनेकी प्रबल और और अल्प परिभमसे ही पूर्ण अध्येता एवं पूर्ण ज्ञाता
उत्कृष्ट उत्कण्ठा जागृत हो उठी। हरिभद्र सूरिने बौद्धोंकी हो गये । शनैः शनैः जैन दर्शनके गम्भीर मननसे ये
विद्वेषमय प्रवृत्तिके कारण ऐसा करनेके लिये निषेध प्राचार क्षेत्रमें भी एक उज्ज्वलनक्षत्रवत् चमक उठे
किया; किन्तु पूर्वकर्मोदय वशात् भावी अनिष्ठ ही हँस और जैसे एक चक्रवर्ती अपने पुत्रको भार सौंपकर
और परमहंसको उस ओर आकर्षित करने लगा । सब
ही चिन्ता मुक्त हो उठता है, वैसे ही श्री जितभटजी भी
है भवितव्यताकी शक्ति सर्वोपरि है। अपने गच्छके सम्पर्स मारको हरिभद्र पर छोड़कर
___ यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि ये चिन्ता मुक्त हो गये । इस प्रकार मुनि हरिभद्र श्राचार्य
दोनों शिष्य गुरुके अनन्य प्रेमी और असाधारण मक हरिभद्र हो गये और शान, दर्शन, चारित्रमें, प्रम्याइत
थे। गुरुके बचनोपर सर्वस्त्र होम कर देनेकी पवित्र गविसे विकास करने लगे।
भावनाबाले थे। किन्तु भवितव्यतावश गुरुकी पुनीत हरिभद्रहरिके शिष्य
आशाम इस समय विमुख हो गये। मावी अनिधन कहा जाता है कि हरिभद्र रिके हम और परमहंस बौद्ध विद्यापीठकी घोर खींचता चला गया। अन्ततो