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अनेकान्त
[फाल्गुन, वीर-निर्वाश सं० २०६६
गत्वा चलते चलते ये विद्यापीठमें पहुँच ही गये। पूर्ण व्यवस्था कर दी। अब ये शांति पूर्वक पूर्ण निर्भ
जैसे आजकल सर्व धर्म सहिष्णुनाका अथवा पर. यताके साथ क्लिष्ठसे क्लिष्ठ दर्शन शास्त्रोंका भो अति धर्म प्रति उदारताका प्रभाव-सा है, वैसा ही उस समयमें शीघ्रतासे अध्ययन करने लगे । उपयोगी भागको कंठस्थ भी स्वपक्षको येनकेन प्रकारेण सिद्धि करना और पर- भी करने लगे। साथमें जैन दर्शनके प्रतिवाद अंशका पक्षका इसी प्रकार खण्डन करना ही धर्म प्रभावना भी प्रतिवाद अत्यंत सूक्ष्म रीतिसे किन्तु मार्मिकरूप में अथवा धर्मरक्षा समझी जाती थी। बौद्ध साधुओका दो एक पृष्ठोंपर इन्होंने लिख लिया। श्राचार विचार लोक-कल्पनाकी भावनासे रहित हो चला या । महाकारुणिक भगवान बुद्धकी श्रादर्शता और परीक्षा और कुलाति-कोप लोक-कल्याणकी भावना विलुप्त सी हो गई थी। केवल हम और परमहंस उन पृष्ठोंको गुमही रखते थे, किन्तु तर्क-गल पर अन्य दर्शनोंको वाद विवाद के क्षेत्रमें परा- देवयोगमे एक दिन ये पृष्ठ हवासे उड़ गये और एक जितकर अपनी प्रतिष्ठा जनसाधारणमें स्थापित करते बौद्ध भिक्षु के हाथ लग गये । पृष्ठीको उठाकर वह कुलहुए, अपनी इहलौकिक तृष्णामय आवश्यकताओंकी पतिके ममीप ले गया। कुलपतिने ध्यानपूर्वक उन पर्ति करते हुए अपने धर्मका आधिपत्य प्रतिष्ठित करना पृष्ठोको पढ़ा। बौद्ध दर्शन के प्रति जैन दर्शनकी युक्तियों ही बौद्ध भिक्षुत्रोंका एक मात्र उद्देश्य रह गया था। की गंभीरता, मौलिकता और अकाट्यतापर कुलपति मुग्ध महावीर कालीन वैदिक स्वछंदताकी तरह इस समय भी हो उठा और इस बात पर श्राश्चर्यजनक प्रमन्नता हुई बौद्ध-स्वछंदताका साम्राज्य-सा था । विद्यापीठोंकी स्था- कि मेरे विद्यारीठमें ऐसे प्रग्बर बुद्धिशील विद्वान विद्यार्थी पनाका ध्येय भी यही था और तदनुसार अनेक विक- भी है। किन्तु थोड़ी ही देर में संप्रदायान्धताको मादकता ल्पात्मक शुष्क न्याय विषयोंका ही उनमें विशेष अध्य. ने मस्तिष्क में विकृतिकी लहर दौड़ा दी। कुलपतिको यन कराया जाता था।
यह जाननेकी उत्कण्ठा हुई कि इन पन्द्रहहजार छात्रों इस असहिष्णुतामय वातावरणमें हस और परमहम में से वे कौनमें छात्र हैं, जिन्होंने कि इतनी प्रखर बुद्धि जैन साधुके वेशमें कैसे रह सकते थे ? बौद्ध भिक्षुके का इतना सुन्दर परिचय दिया है। निश्चय ही वे जैन समान वेश-परिवर्तन करना पड़ा। मुनिहंस और मुनि- है किन्तु जात होता है कि वे यहाँपर बौद्ध भिन्तुके परमहंससे भिक्षु हंस और भिक्षु परमहसकी उपाधि रूपमें रहने हैं। धारण करनी पड़ी। यह है विद्या-व्यसन और विघ्न- निष्करुण परीक्षाका दारुण समय उपस्थित हुश्रा मोहकी प्रबल उत्कण्ठाका विकृत परिणाम । इस न्यसन और यह मुक्ति निर्धारित की गई कि एक जिन-प्रनिमा
और मोहकी कृपासे ही पवित्र प्राचार विचार छोड़ने मार्गमें रखी जाय और उसपर विद्यापीठका प्रत्येक पर गुरुकी पुनीत पाशकी अवहेलना की और इस ब्रह्मचारी पाँव रखते हुए आगे बढ़े। इस रीति अनुसार प्रकार प्रात्म-विचारोंकी हत्या करनी पड़ी। बौद्ध छात्र तो निर्भयता पूर्वक प्रतिमापर पैर रखते हुए
इन बौद्ध भिक्षु समझकर विद्यापीठके कुलपतिने आगे बढ़ गये। किन्तु जब हंस और परमहंसका क्रम इनके लिये भोजन और अध्ययनकी सर्व सुलभता और पाया तो इन्होंने मी एक प्रतियुक्ति सोची। वह यह थी