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________________ वर्ष, किरण हरिभद-सति RRE इसी प्रकार इमी प्राचीन मामग्री के आधारपर कुछ सिद्धसेन दिवाकरके समान ही ये भी अपने इस मिण्यानवानगीन मामग्रीका भी निर्माण हश्रा है; उसमसे विश्वासके प्रदर्शन के लिये एक सोपान-संक्तिका (नीसपं. हरगोविन्ददामजी कृत 'श्री हरिभद्र यूरि चरित्र', रनी ), एक कुदाला, एक जाल और जम्बू वृक्षकी एक ५० बेचरदाम जी द्वारा लिखित 'जैन दर्शनकी विस्तृत लता अपने पास रखते थे। इसका तात्पर्य यही था कि भूमिका', श्री जिनविजयजी लिखित "हरिभद्र मूरिका यदि प्रतिवादी आकाशमें उड़ जायगा तो उसे इस समय निर्णय" और प्रोफेसर हरमन जेकोबी द्वाग सोपान-पंक्ति के द्वारा पकड़ लाऊँगा; जल में प्रविष्ट हो लिग्वित “ममराहचकहा कि भूमिका" श्रादि रचनाएँ जायगा तो जाल द्वारा खींच लंगा, और इसी प्रकार भी मुख्य हैं । इमो सामग्रीके श्राधारपर में अब श्री हरि यदि पातालमें प्रवेश कर जायगा तो कुदाले द्वारा खोद भद्र मूरिका चरित्र-निर्णय करनेका प्रयास करता हूँ निकाल लंगा। जम्बलताका रहस्य यह था कि मेरे और उमपर कुछ निष्कर्षात्मक मीमामा भी करनेका सदृश विद्यावान् मम्पर्ण जम्बूद्वीपमें कोई नहीं है । इसी प्रणाम करूंगा। प्रकार कहा जाता है कि विद्या के भारमे पेट कहीं फट नहीं जाय, इमीलिये पेटपर एक स्वर्ण निर्मित पट भी प्रारम्भिक-परिचय बांधकर रखते थे। साथ में यह भी प्रतिज्ञा थी कि जिमका भाग्नीय गजनैतिक इनिहाम में मनाईका महत्त्वपर्ण कथित वाक्य नहीं ममझ मकगा, उमका तत्काल शिष्य और गौग्यपूर्ण स्थान है । इमी पवित्र भूमिपर महागणा हो जाऊँगा। इमीगमिह, महागणा लक्ष्मणसिंह, म गिगणा मग्रामसिंह एक दिनकी बात है कि हरिभद्र एक सुन्दर शिवि और महाराणा प्रतापसिंह महश शूरवीर एवं नग्न कामें बैठकर बाजार में जा रहे थे, शिविकाके आगे आगे भामाशाह मरीग्वे पुरुष पुंगव उरान हुए हैं। हमारे उनके शिष्य उनकी विझदावलीके रूपमें "सरस्वती चरित्रनायक हरिभद्र की जन्मभूमि भी मंवादही है। कण्ठाभग्गा, वैयाकरणप्रवण, न्यायविद्याविचक्षण, वाकहा जाता है कि चित्तौड़ ही अापका जन्म स्थान है। दिमतगजकमग, विप्रजननरकेमरी" इत्यादिरूपसे बोलते तत्कालीन चित्तौड़ नरेश निनारिके हरिभद्र पंगेटिन थे। हर चल रहे थे। इतने में थोड़ी दूरपर "जनतामें घबराइस प्रकार प्राप्र जातिमे ब्राह्मण और कर्मम पुरोहित हट और इधर उधर भागा दौड़ी हो रही" का थे। ये चौदह विद्यानोंमनिएण और अनानप्रतिवादी दृश्य दिग्पलाई पड़ा। हरिभद्र के शिष्य और शिविकाथे । इमीलिये गन-प्रनिष्टा और लोक प्रतिष्ठा दोनों ही वाहक मजदूर भी इधर उधर बिग्घर गये। हम परिस्थिइन्हे प्राम थीं । विद्याबल, गजबल और लोकप्रतिष्ठामे तिको देगकर विप्रवर हरिभद्र ने भी बाहर दृष्टि दौड़ाई, हरिभद्रकी वत्ति अभिमानमय हो चली थी, एवं नदनु- तो क्या देखते हैं कि एक मदोन्मत्त प्रचण्डकाय मार इन्हें यह मिथ्या श्रास्म-विश्वाम मा हो गया था पागल हाथी जनताम भय उत्पन्न करता हुश्रा ने जींस कि मेरे बगबर प्रगाढ़ वैयाकरगा, उत्कट नैयायिक, दौड़ा चला थाहा है। मार्गमही शिविका-स्थित हरि. र बादी और गम्भीर विद्वान् इम ममय मणी मद्र शिविकाको छोडकर प्राण रक्षार्थ समीप एक जैन पर कोई नहीं है। किंवदन्नियों में देखा जाना है कि मन्दिर नद गय । नब उन्हें जात हसा कि "हस्तिना
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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