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________________ नृपतुगका मत विचार 'क' प्रतिका अन्तिम पद्य इस प्रकार दिया है- पंजरी" दोनों में नीतियोषक और धर्मबोधक तत्व रचिता सितपटगुरुवा विमता विमलेन रस्नमालेव। प्रत्येक पद्यसे टपकता है-अर्थात धर्म और नीतिका प्रश्नोत्तरमालेयं कठगता कं न भूपयति ॥ २६॥ पृथकरण इनकीकृतिमें रहना विश्वसनीय नहीं है। इसके अलावा 'ख' प्रतिका मन्तिम पद्य और (३) वैसे ही इस कवितामें भक्तियोषक वक्तव्य तरह है: नहीं है। किसी धार्मिक रीतिसे भी उपासनाविवेकायतराज्येन राज्ञेयं रस्नमालिका । सम्बन्धी बातें नहीं हैं। अत एव यह शंकराचार्यकी रचितामोघवर्षेण सुधिया सगंकृतिः ॥२॥ अथवा शकरानन्दकी कृति होगी यह कहना ठीक यह कृति श्रीमच्छंकराचार्यसे या उसके परम्परा नहीं। (४) साथ ही साथ इसके पारम्भमें या के शंकरानन्द यतिस रचित होगी ऐसी भी प्रतीति अन्तिम भागमें विष्णु अथवा शिवकी स्तुति भी है । इस कृतिकी पुरानी हस्त प्रतियोंमे वर्द्धमान - नहीं है और उनके नाम भी नहीं। इन सब बातों जिन स्तुति-सम्बन्धी पद्य न होंगे, और माथ ही से मालूम पड़ता है यह इन भाषायोंकी कति नहीं साथ उनमें अन्तिम पद्य ( 'विमल' श्वेताम्बर गुरु है। (५) इसके १२वें पधमेंनामका पाठान्तर भी, अमोघवर्ष नामका पाठान्तर 'नलिनीदलगतबललवतरक कि पौवनं धनमयापुः।' भी ) नहीं होंगे। इस कृतिमें रचनान्तर प्रक्षेप इस प्रकार है, शंकराचार्यको 'द्वादशपंजरी' के बहुत दिखाई देते हैं अतः शंकराचार्य तथा शंकरा- १०वें पद्य मेंनन्द भी इसके कर्ता नहीं होंगे क्योंकि: नलिनीदलगतसलिलं तरलं । (१) आत्मपरमात्मका ऐक्यत्वक सम्बन्धमें तहजीवितमतिशयचपलम् ॥ इममें चकार शब्द भी नहीं; (२) अथवा नीति ऐसा है । पर इससे इन दोनोंका कर्ता एक ही होगा बोध-सम्बन्धी हम एक छोटीसी कवितामें सिद्धान्त यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि नलिनीदल में स्थित तथा धर्मबोधनको हवा भी नहीं दीखती;पर शंकरा जलबिन्दुकी चंचलताका अपने जीवन, आयुष्य, चार्यकी छोटीसी कृति "द्वादशपंजरी' "चर्पट धनके साथ उपमा करनेकी रूढि सनातन, बौद्ध, 'काम्यमाला' सप्तम गुड्छक (पृ. १२१ और जैनधर्म शास्त्रों में बहुत पुरानी समयसे भारही है१२३) इन सब बातोंसे यह कविता इन आचार्योंकी कृति श्रीमान् पाठक महाशयने 'कविराजमार्ग' के नहीं है, यह बात निष्कृष्टरूपसे कह सकते हैं। उपोद्घातमें इस श्लोकको उद्धृन किया है वहाँ पर ऐसी अवस्थामें इमका कर्ता नपतुंग ही हो 'सुधिया' है, 'काम्यमाला' में प्रकटित काम्यमें यहाँ सकता है क्या ? श्रीमान् पाठक महाशय जैसे 'सुधियां' है। 'सुधिया' ('सुधि'शब्दका तृतीयक वचन) विद्वान भी इसे नृपतुगकी कृति मानते हैं, पर कहने के बदले 'सुधियाम्' ( उसी शब्दकी षष्टी विभकि निम्नलिखित कारणोंसे उनका अभिप्राय ठीक का बहुवचन ) कहना ठीक मालूम पड़ता है। मालूम नहीं पड़ताः
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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