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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६]
जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार
वर्गके द्वारा वैदिकदर्शनोंका खूब विस्तार हुआ । पर कान्तदृष्टि ही व्यावहारिक मार्ग निकाल सकती है। कार्यक्षेत्रमें तो कल्पनाओंका स्थान नहीं है, वहाँ तो इस तरह महावीरकी अहिंसात्मक अनेकान्तदृष्टि व्यवहार्यमार्ग निकाले बिना चारा ही नहीं है। अने- ही जैनदर्शनका मध्यस्तम्भ है । यही जैनदर्शनकी जान कान्तदृष्टि जिसे हम जैनदर्शनकी जान कहते हैं, एक वह है। भारतीय दर्शनशास्त्र सचमुच इस ध्रुवसत्यको पाए व्यावहारिक मार्ग है जिससे मानसिक वाचनिक तथा बिना अपूर्ण रहता। पूर्वकालीन युगप्रतीक स्वामी कायिक अहिंसा पूर्णरूपसे पाली जा सकती है। समन्तभद्र तथा सिद्धसेन श्रादि दार्शनिकोंने इसी पुण्य
उदाहरण के लिए राजनैतिक क्षेत्रम महात्मा गान्धी- रूपा अनेकान्तदृष्टि के समर्थनद्वारा सत् अमत्, नित्याको ही ले लीजिए-आज काँग्रेसमें रचनात्मक कार्य करने नित्य, भेदाभेद, पुण्य-पाप, अद्वैत-द्वैत, भाग्य-पुरुपार्थ, वाले गांधी-भक्तोंके सिवाय समाजवादी, साम्यवादी, अादि विविध वादोंमें सामञ्जस्य स्थापित किया । मध्यवर्गवादी, विरोधवादी एवं अनिर्णयवादी लोगोंका जमाव कालीन अकलंक, हरिभद्रादि प्राचार्योंने अंशतः परपक्षहो रहा है । सब वादी अपने अपने पक्षके समर्थनमें खंडन करके भी उक्त दृष्टिका विस्तार एवं संरक्षण पर पर उत्साह तथा बुद्धिबलस लोकतन्त्रकी दुहाई किया । इसी दृष्टिके उपयोगके लिए, समभंगी, नय, देकर तोंका उपयोग करते हैं । देशके इस बौद्धिक निक्षेप श्रादिका निरूपण हुआ है। विकाम एवं उत्साहसे महात्मा जी कुछ सन्तोषकी सांस भगवान् वीरने जिस उद्देश्यसे इस श्रेयःस्वरूप भले ही लेते हों, पर मात्र इतनेस तो देशकी गाड़ी आगे अनेकान्तदृष्टिका प्रतिपादन किया था, खेद है कि आज नहीं जाती। मभी वादियाँस जब गान्धीजी कहते हैं हम उसे भुला बैठे हैं ! वह तो शास्त्रसभामें सुननेकी कि-भाई, चरखा अादि हम एक तरफ रख देते हैं, ही वस्तु रह गई है ! उसका जीवनसे कोई सम्बन्ध ही तुम अपने वादोंस कुछ कार्यक्रम तो निकालो, जिमपर नहीं रहा !! यही कारण है कि आज समाजमें विविध अमल करनेसे देश आगे बढ़े । बम, यहीं सब वादियोंके संस्थाएँ एक दूसरे पर अनुचित प्रहार करती हैं। विनर्क लंगड़ा जाते हैं और वे विरोध करने पर भी महा- चारोंके ममन्वयकी प्रवृत्ति ही कुण्ठित हो रही है ! हम त्मा गीकी कार्यार्थिताकी दाद देते हैं । अनेकान्तदृष्टि यदि मचमुच वीरके अनुगामी होना चाहते है तो हमें महात्माको सब वादियोंमें कार्याधारसे सामञ्जस्यका मौजदा हरएक प्रश्न पर अनेकान्तदृष्टि से विचार करना गस्ता निकालना ही पड़ता है। उनके शन्द परिमित होगा । अन्यथा, हमारा जीवन दिन-ब दिन निस्तेज पर वस्तुस्पर्शी एवं व्यवहार्य होते हैं, उनमें विरोधियोंक होता जायगा और हम विविध पन्धों में बंटकर विनाशकी नर्कोका उचित आदर तथा उपयोग किया जाता है। और नले जायेंगे। इसीलिए गान्धीजी कहते हैं कि-'मैं वादी नहीं हूँ कारी या लेख गत वीर-शासन-जयन्तीके अवसर पर हूँ, मुझे वादीगर न कहकर कारीगर कहिए, गान्धीवाद वीरसेवामन्दिर, सरसावामें पढ़ा गया था। कोई चीज़ नहीं है ।' तात्पर्य यह कि कार्यक्षेत्रमें अने.
-सम्पादक
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