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मीनसंवाद
(जालमें मीन ) 'क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तु!
या तो विडाल-व्रत ज्यों कथा है, ___देखे नहीं मृत्यु समीप आई ! ___या यों कहो धर्म नहीं रहा है। बोला तभी दुःख प्रकाशता वो
पृथ्वी हुई वीर-विहीन सारी, ___"सोचूँ यही, क्या अपराध मेरा !! स्वार्थान्धता फैल रही यहाँ वा ॥
[ ] न मानवोंको कुछ कष्ट देता,
बेगारको निन्द्य प्रथा कहें जो, नहीं चुराता धन्य-धान्य कोई ।
व भी करें कार्य जघन्य ऐसे ! असत्य बोला नहिं मैं कभी भी,
आश्चर्य होता यह देख भारी, ___ कभी तकी ना वनिता पराई ।।
'अन्याय शोकी अनिायकारी !!' संतुष्ट था स्वल्य विभतिमें ही,
कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे ? ईघृणा थी नहिं पास मेरे ।
स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी ? नहीं दिखाता भय था किसीको,
करें पराधीन, सता रहे जो, नहीं जमाता अधिकार कोई ॥
हिसाव्रती होकर दूसरोंको !! विरोधकारी नहीं था किसीका,
भला न होगा जग में उन्होंकानिःशस्त्र था, दीन-अनाथ था मैं !
बुरा विचारा जिनने किसी का ! स्वच्छन्द था केलि करू नदीमें,
न दुष्कृतोंसे कुछ भीत हैं जो, रोका मुझे जाल लगा वृथा ही !! सदा करें निर्दय कर्म ऐसे !!
[१२] खींचा, घसीटा, पटका यहाँ यों
मैं क्या कहूँ और, कहा न जाता ! ___ 'मानो न मैं चेतन प्राणि कोई ! __ हैं कराठमें प्राण, न बोल पाता !! होता नहीं दुःख मुझे ज़रा भी ! छुरी चलेगी कुछ देर में ही ! हूँ काष्ठ पाषाण-समान ऐसा !!'
स्वार्थी जनोंको कत्र तर्स आता !!"
[१३] सुना करूं था नर धर्म ऐसा
यों दिव्य-भाषा सुन मीनकी मैं, हीनापराधी नहि दंड पाते ।
धिकारने खूब लगा स्वसत्ता । न युद्ध होता अविरोधियोंसे.
हुआ सशोकाकुल और चाहा, न योग्य हैं वे वधके कहाते॥
दंऊ छुड़ा बन्ध किसी प्रकार ।।
[१४] [७] ( रक्षा करें वीर सुदुर्बलोंकी,
पै मीनने अन्तिम श्वास खींचा ! निःशस्त्र शस्त्र नहीं उठाते।
मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !! ३ बातें सभी झठ लगे मुझे वो,
गंजी ध्वनी अम्बर-लोकमें यों___विरुद्ध दे दृश्य यहाँ दिखाई ॥
'हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है !!
-युगबीर'