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अनेकान्त
इस भाष्यका सूचन अकलङ्क ने "वृत्ति" शब्दसे किया है।
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१० परीक्षा - भाष्यकार ने " इत्युक्तम्” पदके साथ जिस वाक्यको उद्धृत किया है वह भाष्य में इससे पहले उक्त न होनेके कारण किसी अन्य प्राचीन प्रन्थसे उद्घृत जान पड़ता है, और उसके उद्धृत करने का लक्ष्य उस व्यवहार कालको बतलाने के सिवा और कुछ मालूम नहीं होता जिसको लक्ष्य करके ही "तत्कृतः काल विभाग: " यह सूत्र कहा गया है। इसीसे उक्त वाक्यके श्रनन्तर लिखा है - " तस्य विभागो ज्योतिषारणां गतिविशेषकृतश्चारविशेषेण हेतुना" और सूत्रके भाष्यकी समाप्ति करते हुए लिखा है - "एवमादि - र्मनुष्यक्षेत्रे पर्यायापन्नः कालविभागो ज्ञेय इति ।" इससे यहां मुख्य (परमार्थ) काल अथवा द्रव्यदृष्टिसे कालके विधानका कोई अभिप्राय नहीं है, और इस लिये इस उल्लेख परसे प्रोफेसर साहबका श्रभिमत सिद्ध नहीं हो सकता ।
अब रही आपके दूसरे उल्लेखकी बात, मुझे तो उसे देखकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ । उसमें भाष्यकार द्वारा विधान रूपसे "षद्रव्याणि” ऐसा कहीं भी नहीं लिखा गया है। भाष्यके उस अंश में उल्लेखित वाक्योंकी जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह समझने के लिये उसके पूर्वाश और पश्चिमांश दोनोंको सामने रखनेकी जरूरत है । अतः उन्हें नीचे उधृत किया जाता है
। श्रश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
( पश्चिमांश ) " यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाभ्यवसायस्थानान्तराख्येतानि तद्वन्नयबादा इति ।”
(पूर्वाश) “अत्राह - एवमिदानीमेकस्मिन्नऽर्थेष्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग इति । श्रत्रोच्यते यथा सर्व एकंसद विशेषात् । सर्वं द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् । सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्याया वरोधान् । सर्व चतुष्टयं चतुर्दर्शन विषयावरोधात्।”
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यहां पर नयवादका प्रसंग है - नेगमादि नयोंका विषय परस्पर विरुद्ध नहीं है-एक वस्तुमें सामान्यविशेषादि धर्म परस्पर विरोध रूपसे रहते हैंइस बातको स्पष्ट किया गया है। किसीने प्रश्न किया कि जब एक पदार्थको आप नाना अध्यवसाय (विज्ञनभेदों) का विषय मानते हैं तो इससे तो विप्रतिपत्ति ( विरुद्धप्रतीति) का प्रसंग आता है। इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि जैसे संपूर्ण जगत सत्की अपेक्षा सतकी दृष्टि से अवलोकन करने वालों की अपेक्षा एक रूप है, वही जीव अजीव की अपेक्षासे दो रूप है, द्रव्यगुण- पर्यायकी अपेक्षा तीन रूप है, चक्षु श्रचतु आदि चारदर्शनोंका विषय होनेकी अपेक्षासे चार रूप है, पंचास्तिकायकी अपेक्षासे पांचरूप है और षड्द्रयों की अपेक्षा - पट द्रव्यों की दृष्टिसे अवलोकन करने वालों की अपेक्षा-पद्रव्यरूप है । इस प्रकार एक जगत वस्तु में उपादीयमान ये एक-दो-तीन-चार-पांच-छह रूपात्मक अवस्थाएँ जेसे विरुद्ध प्रतोति को प्राप्त नहीं होतीं ये अभ्य वसाय के स्थानान्तर हैं, वैसे ही अभ्यवसायकृत नयवाद परस्पर विरोध को लिए हुए नहीं हैं। षट्द्रव्य किस दृष्टि से यहां विवक्षित हैं इसबात को सिद्धसेन ने ही अपनी उस वृति में स्पष्ट कर दिया है जिसे प्रो० साहब ने उदधृत किया है 1 वे कहते हैं पांच तो 'धर्मादिक' और छठा 'कालश्चेत्येके' सूत्रका विषय 'काल' । इससे भाष्यकार की मान्यता के सम्बन्ध में कोई नया विशेष उत्पन्न नहीं होता जिसका विचार ऊपर की परीक्षाओं