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________________ हरिना-सरि था और उस प्रकाशकी सहायतासे प्राचार्यश्री रात्रिमें यह भी पूर्ण सत्य है कि विद्याधरगच्छ और श्वे. भी ग्रंथ रचनाका कार्य भलीभाँति कर सकते थे और ताम्बर संप्रदायमें श्री याकिनी महतराजीकी किती करते थे। अशात प्रेरणासे श्री जिनदत्त सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण हरिभद्र सूरि जब भोजन करने बैठते थे, उस समय की थी। और श्री जिनभट जीके साथ इनका सम्बन्ध ललिग शख बजाना था, जिसे सुनकर याचकगण वहाँ गच्छपति गुरुरूपसे था। एकत्रित हो जाते थे। याचकोंको उस समय भोजन जन्म-स्थान और माता पिताके नाम के सम्बन्धमें कराया जाता था और नदनन्तर याचकों के हरिभद्रमरि ऐतिहासिक मत्यरूपसे कुछ कह सकना कठिन है। को नमस्कार करने पर प्राचार्यश्री यही आशीर्वाद देते किन्तु ये ब्राह्मण थे, अतः कथावलिका उल्लेख सत्य थे कि "भवविरह करनेमें उद्यमवन्त हो।" हमपर याचक हो मकता है। प्रभावक-चरित्रके अनुसार चित्तौड़ नरेश गण पुनः “भवविरह मरि चिरंजीवी हो" ऐमा जयघोष जितारिका पुरोहित बतलाना मत्य नहीं प्रतीत होता है, करत थे । इसीलिये जिन-शामन शृगार प्राचार्य हरि कोकि नित्तौड़के इतिहासमें हरिभद्र-कालमें "जितारि" भद्र सरिका अपर नाम "भवविरह सरि'. भी प्रमिद्ध हो नामक किमी राजाका पता नहीं चलता है। इसी प्रकार गया था। हाथीवाली घटना भी कितना तथ्याँश रखती है, यह भी ___ सम्पूर्ण कथा-मीमांसा एक विचारणीय प्रश्न है; क्योंकि इस घटना की श्रीयह तो मत्य है कि कथाका कुछ अरा कल्पित है, मुनिचन्द्र सूरि कृत उपदेशपदकी टीकाके उल्लेखमें कोई चर्चा नहीं है। यह कथाभाग पीछेसे जोड़ा गया है, कुछ अंश विकृत है और कुछ अश रूपक अलकारसे ऐसा ज्ञात होता है। पांडित्य-प्रदर्शन और तत्सम्बन्धी संमिश्रित है। साधु-शिरोमणि प्राचार्य हरिभद्र सूरिके उज्ज्वल और श्रादर्श जीवन चरित्रका अधिकॉश भाग अंशका इतना ही तात्पर्य प्रतीत होता है कि इनकी विस्मृतिके गर्भम विलुप्त होगया है; जिम अब हमार्ग वृत्ति प्रारंभमें अभिमानमय होगी और ये अपनेको मबस अधिक विद्वान् समझते होंगे तथा शेषके संबंधमें कल्पनाएँ ठीक ठीकरूपम दढ निकालनमें शायद ही हीन-कोटिकी धारणा होगी । इसी धारणाका यह रूप समर्थ हो सकेंगी। प्रतीत होता है जो कि कवि-कल्पना द्वारा इस प्रकार ये प्रकृतिम भद्र, उदार, सहिष्णु, गम्भीर और कथाके रूपमें परिणत हो गया है। विचारशील थे; यह तो पूर्ण सत्य है और इनकी सुन्दर कृतियोंसे यह बात पूर्णतया प्रामाणिक है। दार्शनिक भी याकिनी महत्तरा जीके माथ इनका सम्पर्क और क्षेत्रमें इनके जोड़का शाँत विद्वान् और लोकहितकर इतना भक्ति-पूर्ण सम्बन्ध कैसे हुआ ? यह एक अशात उपदेष्टा शायद ही कोई दूसरा होगा । ६० बेचरदास- किन्तु गम्भीर रहस्यपूर्ण बात है । एक श्लोक अथवा जीके शन्दोंमें ये वादियोंके वादन्बरको, हठियोंके हट- गाथा के आधार से ही इनना प्रचण्ड गम्भीर दार्शनिक ज्वरको और जिज्ञासुओंके मोहज्वरको शांत करनेमें एक वैदिक दर्शनको छोड़कर एकदम जैन साधु बनकर जैनप्रादर्श रामबाण रसायन-समान थे। दर्शन भक्त बन जाय; यह एक प्राश्चर्य-जनक बात
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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