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भनेकान्त
[फाल्गुन, वीरनिवास सं०२४५५
प्रतीत होती है । यह सम्भावना हो सकती है कि कोई यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। बौद्धोसे इन्होंने अति जटिल दार्शनिक समस्या इनके मस्तिष्कमें चक्कर अवश्य शास्त्रार्थ किया होगा और उन्हें अपमान पूर्वक लगाती रही होगी और उसका समाधान इन्हें बराबर पराजयकी कलक-कालिमासे चोट पहुंचाई होगी। किन्तु नहीं हुआ हो; ऐमी स्थितिमें सम्भव है कि अनेकान्त बौद्धोंका इस प्रकार नाश किया हो; यह कुछ विश्वसिद्धान्त द्वारा पूज्य याकिनी महत्तरा जीमे इनका समा- सनीय प्रतीत नहीं होता है। यह हो सकता है कि धान हो गया होगा और इम दशामें स्याद्वादकी महत्ता मानवप्रकृति अपूर्व है और इसलिए बौद्धोंका नाश करने
और दार्शनिक समस्याके ममाधानसे इन्हें परम प्रसन्नता का सकल्प कर लिया हो और उस सकल्पजा हिंसाकी हुई होगी और इस प्रकार यह प्रसन्नता ही इन्हें जैन द. निवृत्ति के लिये ही एव शिष्यमोहकी निवृत्ति के लिये ही र्शनके प्रति अनुरक्त बनाने में एवं साधु बनानेमे कारण १४४४ या १४४० ग्रन्थोंको रचनेका विचार किया हो। भूत हुई होगी, ऐसा शात होता है। यही श्री याकिनी- और यथा शक्ति इस संख्याको पूर्ण करनेका प्रयान महत्तराजीके प्रति इनकी भक्ति और श्रद्धाका रहस्य किया हो, इस सत्य पर अवश्य पहुंचा जा सकता है कि प्रतीत होता है।
बौद्धों और इनके बीच में कोई न कोई तुमुल युद्ध अवस्यावाद या अनेकान्तवाद जैनदर्शनका हृदय है। श्य मचा है और वह कटुताकी चरम-कोटि तक अवश्य इसकी मौलिक विशेषता यही है कि इसके बलमे जटिल पहुँचा होगा । बौद्धोंकी तत्कालीन नृशंमतापूर्ण निरंसे जटिल दार्शनिक समस्याका भी सरल रीत्या पूर्ण कुशता और उत्तरदायित्वहीन स्वछंदता पर हरिभद्रसमाधान हो जाता है । अतः हो सकता है कि असाधा सूरिको अवश्य क्रोध श्राया होगा और संभव है कि वह रण दार्शनिक हरिभद्रकी दार्शनिक समस्याएँ इस सिद्धांत क्रोध हिंसाकी अक्रियात्मक अवस्थाओं से अवश्य के बल पर हल होगई हो और इस प्रकार ये जैन धर्मा- गुजरा होगा । इस प्रकार त जनित पापकी निवृत्तिके नुरागी बन गये हों।
लिये ग्रंथ रचनाकी प्रतिज्ञाकी हो । अतः इस विस्तृत शिष्य-संबंधी कथा-भागका आधार यही हो श्राद्योपाँत घटनाका यही मूल आधार प्रतीत होता है। सकता है कि इनके शिष्य तो दो अवश्य ही हुए होंगे यह निस्सकोच कहा जा सकता है कि बौद्धोंकी स्वच्छइनका गृहस्थ नाम शायद हँस और परमहंस होगा दतापर ये अकुंश लगानेवाले और उनकी उन्मत्तताका
और दीक्षा नाम संभव है कि भिनभद्र और वीरभद्रके दमन करने वाले थे। अतः भारतीय संस्कृतिके और रूपमें हो । प्रभावक चरित्र और कथावलिमें पाये जाने खास तौर पर जैन संस्कृतिके ये प्रभावक संरक्षक और वाले नाम-भेदसे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। विकासक महापुरुष ये; इसमें कोई संदेह नहीं है। कथा-अंशसे यह भी सत्य हो सकता है कि बौद्धोंने इनकी प्रतिभा संपन्न कृतियों और महित्य सेवाके इन दोनोंको कोई महान् कष्ट पहुँचाया हो और इन्हें संबंधमें अगली किरणमें लिखनेका प्रयत्न करूंगा। भयंकर प्रताड़ना दी हो; जिससे संभव है कि ये दोनों शिष्य काल कर गये हो । इस पर प्राचार्य हरिभद्र सरिको यदि प्रचंड कोष ना जाय तो मानव-प्रकृतिमें
(अपूर्ण)