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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार ३५ है कि-उत्तरकालीन प्राचार्योंने बुद्धके उपदेशोंमें पाए मध्यमप्रतिपदाका शाब्दिक प्रादर तो सभी बौद्धचाहुए. क्षणिक, विभ्रम, शून्य, विज्ञान प्रादि एक एक योंने अपने अपने ढंगसे किया पर उसके अन्तर्निहितशब्दके आधार पर प्रचुर ग्रन्थराशि रच डाली और तत्त्वको सचमुच भुला दिया । शून्यवादी मध्यमप्रतिपदाक्षणभंगवाद, विभ्रमवाद, शून्यवाद, शानाद्वैतवाद को शून्यरूप कहते हैं तो विज्ञानवादी उसे विशानरूप । श्रादि वादोंको जन्म देकर इतरमतोंका निरास भी बड़े शून्यवादियोंने तो सचमुच उसे शून्यताका पर्यायवाची फटाटोपसे किया। इन्होंने बुद्धकी उस मध्यमदृष्टिकी ही लिख दिया है ओर समुचित ध्यान न देकर वैदिकदर्शनों पर ऐकान्तिर _ "मध्यमा प्रतिपत्सव सर्वधर्मनिराधमता । प्रहार किया । मध्यमप्रतिपदा के प्रति इनकी उपेक्षा ___भूतकोटिश्च सैवेयं तथता सर्वशम्पता ॥" यहाँ तक बढ़ी कि-मध्यमप्रतिपदा (अनेकान्तदृष्टि) अर्थात्-मध्यमाप्रतिपत्, सर्वधर्मनैरात्म्य और के द्वारा ही समन्वय करनेवाले जैनदार्शनिक भी इनके सर्वशन्यता, ये पर्यायवाची शब्द हैं। यही वास्तविक और र श्राक्षेपोंसे नहीं बच सके । बौद्धाचार्योंने 'नराम्य' शब्द तध्यरूप है। के आधार पर आत्माका ऐकान्तिक खंडन किया; भले ___ सारांश यह कि बुद्धकी मध्यमा प्रतिपत् अपने ही बुद्धने नैरात्म्य शब्दका प्रयोग 'जगतको अात्मस्वरूप शैशवकालमें ही मुरझा गई, उसकी सौरभ सर्वत्र न फैल से भिन्नत्व, जगत्का आत्माके लिए निरुपयोगी होना, सकी और न उत्तराधिकारियोंने ही इस ओर अनुकूल कटस्थ आत्मतत्त्वका श्रभाव' आदि अर्थों में किया था। प्रयत्न किया। 'क्षणिक' शब्द का प्रयोग तो इसलिए था कि हम स्त्री आदि पदार्थोंको शाश्वत और एकरूप मानकर उनमें जैन ष्टिका आधार और विस्तार श्रासक्त होते हैं, अतः जब हम उन्हें क्षणिक-विनश्वर, भगवान् महावीर अत्यन्त कठिन तपस्या करनेवाले बदलनेवाले समझने लगेंगे तो उस बोरसे चित्तको वि. तपःशर थे। इन्होंने अपनी उग्रतपस्यासे कैवल्य प्राप्त रन करने पर्याप्त सहायता मिलेगी । स्त्री श्रादिको हम किया । भगवान् महावीरने बुद्धकी तरह अपने प्राचारएक अवयवी-अमुक श्राकारवाली स्थूल वस्तुके रूपमें को ढीला करनेमें अनेकान्तदृष्टिका सहारा नहीं लिया देखते हैं, उसके मुख श्रादि स्थूल अवयवोंको देखकर और न अनेकान्तदृष्टिका क्षेत्र केवल प्राचार ही रक्खा । उसमें राग करते हैं, यदि हम उसे परमाणुत्रोंका एक महावीरने विचारक्षेत्रमें अनेकान्तदृष्टिका पूरा पूरा पुंज ही समझेंगे तो जैसे मिट्टीके देरमें हमें राग नहीं उपयोग किया; क्योंकि उनकी दृष्टि में विचारोंका समन्वय होता उसी तरह स्त्रीप्रादिके अवयवों में भी रागकी उद्भनि किए बिना प्राचारशुद्धि असंभव थी। श्रात्मादि वस्तुओं नहीं होगी । बौद्धदर्शन-प्रन्योंमें इन मुमुक्षु भावनाओंका के कथनमें बुद्धकी तरह महावीरने मौनावलम्बन नहीं लक्ष्य यद्यपि दुःख-निवृत्ति रहा पर समर्थनका दंग किया; किन्तु उनके यथार्थ स्वरूपका निरूपण किया। बदल गया। उसमें परपक्षका खंडन अपनी पराकाष्ठा उन्होंने कहा कि-आत्मा है भी, नहीं भी, निस्य भी को पहुँच गया तथा बुद्धि-कल्पित विकल्पजालोंसे बहु- है और अनित्य भी । यह अनेकान्तात्मक वस्तुका कथन विध पन्थ और ग्रंथ गंथे गए। उनकी मानसी अहिंसाका अवश्यम्भावी फल है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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