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________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ कायिक अहिंसाके लिए व्यक्तिगत प्राचार-शुद्धि किसी . अनेकान्तदृष्टिका स्वरूप .. तरह कारगर हो सकती है पर मानसी अहिंसा के लिए तो अनेकान्तदृष्टिके मूलमें यह तत्त्व है कि-वस्तुमें जब तक मानसिक-द्वन्दोंका वस्तुस्थिति के आधारसे समी अनेक धर्म हैं, उनको जाननेवाली दृष्टियाँ भी अनेक करण नहीं किया जायगा तब तक मानमिक अहिंसा हो होती हैं,अतः दृष्टियोंमे विरोध हो सकता है,वस्तुमें नहीं। ही नहीं सकती और इस मानसिक अहिंसाके बिना दृष्टियोंमें भी विरोध तभी तक भासित होता है जब तक बाह्यअहिंसा निष्प्राण रहेगी। वह एक शोभाकी वस्तु हम अंश-ग्राहिणी दृष्टि में पूर्णताको समझते रहें; उस हो सकती है हृदयकी नहीं। यह तो अत्यन्त कठिन है समय सहज ही द्वितीय अंशको ग्रहण करनेवाली तथा कि-किसी वस्तु के विषयमें दो मनुष्य दो विरुद्ध धार- प्रथम दृष्टिकी तरह अपने में पूर्णताका दावा रखनेवाली गाएँ रखते हो और उनका अपने अपने ढंगसे समर्थन दृष्टि उससे टकराएगी। यदि उन दृष्टियोंकी यथार्थता भी करते हो, उनको लेकर वाद विवाद भी करते हों; का भाव हो जाय कि ये दृष्टियां वस्तुके एक एक फिर भी वे श्रापममें ममन भाव-एक दृमरके प्रति अंशको ग्रहण करनेवाली हैं, वस्तु नो इनसे परे अनन्तमानम अहिंमा रग्ब सकें। चित्त शुद्धि के बिना अन्य धर्मरूप है, इनमें पूर्णताका अभिमान मिथ्या है तब अहिंसाके प्रकार तो याचितकमंडन-स्वरूप ही हैं। स्वरसतः विरोधी रूपसं भासमान द्वितीय दृष्टिको भगवान महावीरने इमी मानम अहिंमाके पालन के लिए उचित स्थान मिल जायगा । यही नत्त्व उत्तरकालीन अर्निवचनीय अग्वंड अनन्तधर्मवाली वस्तु के विषयमें प्राचार्योंने बड़े सुन्दर शब्दोंमें ममझाया है किप्रचलित विरुद्ध अनेक दृष्टियोंका समन्वय करनेवाली, एकान्तपना वस्तुमें नहीं है, वह नो बुद्धिगतधर्म है । जब विचारोंका ममझौता करानेवाली पुण्यरूपा अनेकान्तदृष्टि' बुद्धि द्वितीय दृष्टिका प्रतिक्षेप न करके तत्सापेक्ष हो को मामने रखा । इससे हरएक वादी वस्तु के यथार्थम्व- जाती है तब उसमें एकान्त नहीं रहता, वह अनेकान्त रूपका परिज्ञान कर अपने प्रतिवादियोंकी दृष्टिका उचित मयी हो जाती है। इमी समन्वयात्मकदृष्टि से होने वाला रूपसे आदर करे, उसके विचारोंके प्रति महिष्णुताका वचनव्यवहार 'स्याद्वाद' कहलाता है । यही अनेकान्तपरिचय दे, रागद्वेष विहीन हो, शान्त चित्तसे वस्तु के ग्राहिंगी दृति 'प्रमाण' है । जो दृष्टि वस्तु के एक धर्मको अनिर्वाय स्वरूप तक पहुँचनेकी कोशिश करे। मुख्यरूपसे ग्रहण कर इनरदृष्टियोंका प्रतिक्षेप ___ समाजरचना और संघनिर्माणके लिए तो इस न करके उचित स्थान दे वह . 'नय' कहलाती है । तात्विकी दृष्टिकी बड़ी आवश्यकता थी। क्योंकि संघमें इम मानस अहिंसाकी. कारण-कार्यभत अनेकान्तविभिन्न सम्प्रदाय एवं विभिन्न विचारों के व्यक्ति दीक्षित दृष्टि के निर्वाहार्थ स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी आदिके होते थे, इस यथार्थ दृष्टि के बिना उनका समीकरण होना ऊपर उत्तरकालीन प्राचार्योंने स्खूब लिखा। उन्होंने असंभव था और बिना समन्वय हुए उनकी अहिंसाकी उदारतापूर्वक यहाँ तक लिखा कि 'समस्त मिध्यैकान्तोंतथा संघमें पारस्परिक सद्भावकी कल्पना ही नहीं की के समूहरूप अनेकान्तकी जय हो।' यद्यपि पातञ्जल जासकती थी। ऊपरी एकीकरणसे तो कभी भी विस्फोट योगदर्शन, सांख्यदर्शन, भास्कर वेदान्ती श्रादि इतरहो सकता था, और हुआ भी। दर्शनकारोंने भी यत्र-तत्र इस समन्वय दृष्टिका यथासंभव .
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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