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________________ हरिभद्रसरि करते रहते है। अपनी-अपनी तारीफ करके अन्य सदा. परिवर्तन लानेका सफल प्रयास किया और पुनः सुधार चारीका विरोध करते हैं। सब ये नाम धारी साधु लि- मार्गको नीव गली । इस एटिसे हरिभवसरिक्षा सापोंको ही उपदेश देते है। स्वच्छन्द रूपमे विचरण हित्यक्षेत्र में जो स्थान है वैसा ही गौरवपूर्ण स्थान करते हैं। अपने भक्त राई समान गुणको भी मेरु पाचार क्षेत्रमें भी समझना चाहिये। समान बतलाते हैं । विभिन्न कारण बतबाकर भनेक भाचार्य हरिभद्रमूरि दीर्घ तपस्वी भगवान महा. उपकरण रखते हैं। घर-घर कथाओंको कहते रहते हैं। वीर स्वामीके श्रद्धालु और स्थिर सिसका अनुयायी सभी अपने पापको प्रहमिह समझते हैं। स्वार्थ माने थे। यही कारण है कि अपने समयमें बेन प्राचारों की पर मन हो जाते हैं और स्वार्थ पूरा होते ही ईर्षा रखने ऐमी दशा देखकर उन्हें हार्दिक मनोवेदना हुई । और जग जाते हैं । गृहस्थोंका बहुमान करते हैं। गृहस्थोंको उन्होंने अपने ज्ञानबल एवं बारित्रवजा-हारा इस क्षेत्र में संयमके मित्र बनवाते हैं। परस्परमजरते राते और पुनः एता स्थापित की। शिष्यों के लिये भी कलह करते हैं।" इस प्रकार प्राचा. भगवान् महावीर स्वामीके उद्देश्यको पूर्ण करने, रविषयक शोचनीय पतनका वर्णन करते हुए अन्तमें उचत करने और विकसित करनेमें साधु संस्थाका गुस प्राचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं, कि-"ये साधु नहीं हैं, उँचा स्थान है। इसके महत्व और गौरवको भुनाया किन्तु पेट भरनेवाले पेटु हैं। इनका (माधुओंका) यह नहीं जा सकता है। जैन-धर्म, जैन समाज और जैन कहना कि-"तीर्थकरका देश पहिनने वाला वन्दनीय साहित्य भाज भी जीवित है, इसका मूल कारण बहै"-धिक्कार योग्य है, निन्दास्पद है।" प्राचार्यश्रीने धिकाँशमें यह साधु-संस्था ही है। इसकी पवित्रता ऐसे साधुनोंकी "निर्लज्ज, अमर्याद, कर" आदि विशे- और प्रारोग्यनाम हो जैन मस्कृतिका विकास संनिहित पणोंसे गम्भार निन्दा की है। ऐसा ही साधु चरित्र- है। किन्तु भाजकी साधु-संस्थामें भी पुनः अनेक रोग चित्रण महानिशीथ, शनपदी भादि ग्रन्थों में भी पाया प्रविष्ट हो गये हैं । अतः पुनः ऐसे ही हरिभद्र समान जाता है। ___एक महापुरुषकी भावश्यकता है, जोकि महावीर स्वामी भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रदर्शित आचार- के याचार क्षेत्रको फिरसे सुदृढ़, स्वस्थ, और मार्श पद्धति एक मादर्श स्याग वृत्ति और भसिधारा सम बना सके । अत्यन्त कठोर एक असाधारण निवृत्तिमय मार्ग है । 'संबोध-प्रकरण' में लिखित और अत्र उद्धन या इस मार्ग में सब प्रकारके दुःख, कठिनाइयाँ उपसर्ग चारित्र-पतन तत्कालीन चैत्यवासी संप्रदायके माधुनों एवं परिषह सहन करने पड़ते हैं। स्वयं भगवान् महा- में पाया जाता था । यह संप्रदाय विक्रम संवत् ११२ वीर स्वामीने भरपम्स उग्ररूपसे इसका परिपालन के भासपासमें उत्पन हुआ था; ऐमा धर्मसागर-कृत किया था। उसी भादर्श त्याग-वृतिको जैन साधुओं पट्टावलीमे ज्ञात होता है। चरित्र-नापकका काम द्वारा ही इस प्रकारकी दशा की जाती हुई देखकर मा- विक्रम संवत १७ से २२७ सकका है, मनः मालम चार्य हरिभद्रसूरिको मार्मिक एवं हार्दिक वेदना हुई। होता है कि संवत् ११२ से १७ तक कालमें इस प्राचार्यश्रीने विरोध होनेकी दशामेभी इस स्थितिमें संप्रदायने अपने पैर बहुत मजबूत जमा लिये होंगे।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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