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________________ २१० अनेकान्त [माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६० साधु-संस्था पुनः वास्तविक और मादर्श मार्गके प्रति मेरा और अमुक कुन मेरा-ऐसा ममत्वभाव रखते भवामय और भक्तिशील हुई। प्राचार्य हरिभद्रसूरिने है। खियोंका प्रसंग रखते हैं । श्रावकोंको कहते हैं कि अपने संबोध-प्रकरण' में तत्कालीन परिस्थितिका मनकार्य ( मतभोज) के समय जिन-पूजा करो और बर्वन इन सब्दोंमें किया है।--"ये साधु चैत्य और मृतकोंका धन बिनदान में देदो। पैसोंके लिये (दधिममें रहते हैं। पूजा मावि क्रियाओंका भारम्भ समारम्भ णारूपस प्राप्त करने के लिये) अंग उपांग प्रादि सूत्रोंको करते हैं। स्वतः के लिये देव-मध्यका उपयोग करते हैं। श्रादकोंके आगे पढ़ते हैं । शालामें या गृहस्थोंके घर पर जिनमन्दिर और शालाओंका निर्माण कराते हैं। ये खाजा आदि पाक पदार्थ तैयार करवाते हैं। पतितमुहर्त निकालते हैं। निमित्त बतलाते हैं। इनका चारित्रवाले अपने गुरुओंके नामपर उनके दाह-स्थलों (साधुओंका ) कहना है कि श्रावकोंके पास सूक्ष्म पर स्मारक बनवाते हैं । बलि करते हैं। उनके व्याख्याबातें नहीं कहनी चाहियें। ये भस्म (राख) भी तंत्र नमें खियाँ उनकी तारीफ करती है। केवल चियोंके रूपसे देते हैं। ये विविध रंगके सुगंधित और धूपित वस्त्र प्रागे व्याख्यान देते हैं। साध्वियों भी केवल पुरुषोंके पहिनते हैं। स्त्रियों के सामने गाते हैं । साध्वियों द्वारा भागे व्याख्यान देती हैं। भिक्षार्थ घर घर नहीं घूमते बागाहमा काममें जाते हैं। तीर्थ-स्थानके पंडोंके समान है। मंडली में बैठ करके भी भोजन नहीं करते हैं । अधर्ममे धन इकट्ठा करते हैं। दिनमें दो तीन बार संपूर्ण रात्रिभर सोते रहते हैं। गुणवानों के प्रति द्वेष खाते हैं। पान प्रादि वस्तुएँ भी खाते हैं। धी-दूध रखते है । क्रय विक्रय करते हैं । प्रवचनकी बोटमें भाविकाभी खूब प्रयोग करते हैं । फल-फूल और सचित्त विकथाएँ करते हैं। धन देकर छोटे छोटे बालकोंको पानीका भी उपयोग करते हैं। जाति भोजनके समय शिष्यरूपसे खरीदते हैं । मुग्ध पुरुषोंको ठगते हैं । जिनमिष्टानको भी ग्रहण कर लेते हैं। माहारके लिये स्खुशाल प्रतिमाओंका क्रय-विक्रय करते हैं। उच्चाटन धादि मकरते । पछने पर भी सस्य धर्मका मार्ग नहीं भी करते है। डोरा धागा करते हैं। शासनबतलाते हैं। प्रातःकाल सूर्योदय होते ही खाते हैं। प्रभावनाकी श्रोटम कलह करते हैं। योग्य साधुओंके विकृति उत्पन करनेवाले पदार्थोंका भी बार बार पास जाने के लिये श्रावकोंको निषेध करते हैं । श्राप उपयोग करते है । केश-लुंचन भी नहीं करते हैं। श- प्रादि देनेका भय बतलाते हैं। द्रव्य देकर अयोग्य रीरका मैल उतारते हैं। माधु योम्य करणीय शुद्ध चा- शिष्यों को खरीदते हैं। व्याजका धंधा करते हैं। प्ररित्रके अनुरूप क्रियाओंको करते हुए भी लज्जित होते योग्य कार्यों में भी शासन-प्रभावना बतलाते हैं। प्रवहै। कारण ही कपड़ों का देर रखते हैं। स्वयं पतित चनमें कथन नहीं किये जानेपर मी पेमे तपकी प्ररूपणा होते हुए भी दूसरोंको प्रायश्चित देते हैं । पडिलेहणा कर उसका महोत्सव करवाते हैं। स्वतः के उपयोगके ( प्रतिबेखना) भी नहीं करते हैं । वम, शैय्या, जूते, लिये वस्त्र, पात्र प्रादि उपकरण और द्रष्य अपने श्रावाहन, मायुध, और ताये मादिके पात्र रखते हैं। कोंके घर इकटे करवाते हैं। शास्त्र सुनाकर शावकों से स्नान करते हैं। सुगंधित तेलका उपयोग करते हैं। धनकी प्राशा रखते हैं । ज्ञानकोशकी वृद्धि के लिये धन भंगार करते है । अत्तर फूलेल जगाते हैं। अमुक ग्राम इकहा करते हैं और करवाते हैं। भापसमें सदैव संघ
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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