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अनेकान्त
[फाल्गुन, बीरनिर्वावसं. २०५९
प्रथम अभ्यास
अवस्थामें ही मताती हैं, क्योंकि यदि उसे अपने स्वरूप
का पग बोध हो और यह मालूम रहे कि मैं क्या कर सदा जाग्रत रहना
रहा हूँ.तो वह कषायोंके फेर में कभी न मम । अक्सर यह सदा जाग्रत एवं सावधान रहना, यह योगकी पहली देखा जाता है कि मनुष्य कोई काम करके उमी प्रकार सोदी और प्रथम शर्त है। इस विषयमें कुछ योग- पछताता है जिस प्रकार कि स्वप्न में बुरी बने देख कर निपुण श्राचार्योंके वाक्य जानने योग्य हैं:-- जागृन होने पर दुःखी होता है । वह मोचता है कि उम
भवभुवयविश्रान्ते नमोहास्तचेतने । ममय किमीने मुझे जगा क्यों न दिया? सावधान कपों एक एव जगत्यस्मिन् योगी नागपहनिशम् ॥ न कर दिया ? हाय ! मुझे ऐम विचार क्यों उत्पन्न हुए।
-श्रीशुभचंद्राचार्य-ज्ञानर्णव यही बात वह तब मोचता है जब कि काम-क्रोधादिके अर्थात्-जन्म जन्मके भ्रमणसे माँत हुए तथा आवेशमें कुछ कर बैठता है। मोहसे नष्ट और अस्त होगई है चेतना जिसकी, ऐसे यदि सूक्ष्मतासे देखा जाय तो संसारके बीजरूप जगत्में केवल योगी ही रातदिन जागता है। कर्मोंकी जड़ यह श्रमावधानता ही है । यदि यह निकल
काखानसामहाज्वालाकलापि परिवारिताः। जाय तो नवीन कर्मोका श्रास्रव बिल्कुल रुक जाय मोहापाः शेरते विश्व मरा जाग्रति योगिनः॥१० तथा पुराने कर्म बिना किमी प्रतिक्रियाके नष्ट होते चले
-श्रीनंदिगुरुविरचित योगमारसंग्रह जायँ । यह मावधानी या जाग्रति मबसे प्रधान योग है, अर्थात्-कालरूपी महा अमिकी ज्वालाकी कला- इसके बिना और मब योग वृथा है; क्योंकि अक्मर प्रोंसे घिरे हुए इस विश्वमें मोहाँध लोग सोने हैं और देखा जाता है कि बहुतमे योगियोंमें संवर-निर्जराकी योगी लोग जाग्रत रहते हैं।
अपेक्षा श्रास्त्रव-बन्ध ही बढ़ जाता है। मा विसि सयवाह देहियह जोग्गिहु नहिं जग्गेइ। अनेक बार यह ही देखने में आया है कि बहुतसे बाहिं पुड जग्गा सपजु जगुसा शिसि मशिवि सुवेह॥१॥ लेग काम-क्रोधादिका कारण न मिलने देनेके लिये
-श्री योगीन्दुदेव-परमात्मप्रकाश जंगल-पहाड़ श्रादिका श्राश्रय लेते हैं। परन्तु स्वप्नोंके अर्थात्-जो सब देहधारिजीवोंकी रात्रि है उसमें समय वे भी असंख्य कर्मोका बन्ध कर लेते हैं। इस योगी बनता है और जहाँ सारा जगत् जागता है वहाँ लिये योगीको चाहिए कि वह रात्रिको मी सावधान रहे। बोलीभरात्रि समझकर (योगनिद्रामें) सोता है। दिनकी अपेक्षा काम-क्रोधादि रिपु रातको ही अधिक
योगका सर्वप्रथम उद्देश्य कर्मके परमाणुरोंका सताते हैं। वैज्ञानिकोका कथन है कि इसका सूर्यसे संबर-अर्थात् उन्हें लगनेसे रोकना है। ये कर्मके पर- सम्बन्ध है । माणु मनुष्यको अपने स्वरूपकी असावधानी-सुषुप्तिकी योगके अन्योंमें जो यह जाग्रत रहनेकी क्रियाका भवत्या में ही लगते हैं। जबसे यह जीव संसारमें जन्मता उपदेश दिया है इसकी खोज में मैंने बहुत दिन सोचहै तबसे मृत्युपर्यन्त वह जागनेकी अपेक्षा सोता ही विचार और प्रयोगोंमें बितायें और तब वह क्रिया बड़ी अधिक है। काम-क्रोधादि कषायें मनुष्यको इस सुषुप्त मुश्किलसे मेरे हाथ लगी। यह क्रिया मैंने आज तक