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वर्ष ३, किरण
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भारतीय दर्शनमें जैन-दर्शनका स्थान
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तपस्याके आकर्षणने ही जैनों तकको बौद्धमत और विश्व का उपादान "वह," मैं उमसे मिन्न प्रहण करनेमें प्रवृत्त किया था। मैं हूँ यह सभी नहीं, कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, यह दिखलाई पड़ने अनुभव करते हैं, कौन इस बातको नहीं मममता वाला अनन्त जगत यद्यपि मुझसे अलग सा जान कि मैं केवल नि:सार छाया नहीं हूँ और सत्य हूँ। पड़ रहा है, वह भी उससे अलग स्वतन्त्र कोई
सत्ता नहीं, एक अद्वितीय सत्ता-वह तुम हम आत्मा अनादि अनंत है यह तो उपनिषदोंकी
चिदाचिद भाव उस 'सत्यस्य सत्यम्' से सम्पूर्ण हर एक पंक्ति में बड़े ही चमकने वाले रूपमें अङ्कित है । वेदान्त-दर्शन भी इस तत्वकी दिगन्त
रूपसे अपृथक् ही हैं। मुखरित करनेवाली आवाजसं जोरोंके साथ वेदान्तका 'एकमेवाऽद्वितीय' वाला सिद्धान्त प्रचार कर रहा है। आत्मा है प्रात्मा सत्य है, निस्सन्देह बहुत गम्भीर और महान है, किन्तु वह सृष्ट पदार्थ नहीं किन्तु अनन्त है, अात्मा साधारण मनुष्यके लिये इतने ऊंचे भावका ग्रहण जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करता चला आरहा है, एक कठिन विषय होजाता है। जीवात्मा एक सुख और दुःखका भोक्ता है, ऐसा अवश्य प्रतीय- सत्ता है, माधारण मनुष्य यह तो अवश्य अनुभव मान होता है, किन्तु यह सत्ता है, असीम ज्ञान करते है, किन्तु एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्यमें
और प्रानन्दके सम्बन्ध में भी उसे असीम और कोई भेद नहीं, मन, जड़ पदार्थ और अन्यान्य अनन्त ही समझना होगा। वेदान्तका यही मूल दग्व पड़नेवाली सभी वस्तुओंमें कोई भेद नहीं, प्रतिपाद्य विषय है। आत्माकी असीमता और इस बातको वे स्वीकार नहीं करना चाहते। अनन्तत्वको जैन-दर्शन भी स्वीकार करता है, यदि कोई ज्ञानी पुरुष ऐसा सिद्धान्त करना इसीलिये यहाँ जैन-दर्शन और वेदान्त-दर्शनमें चाहे कि वह दूसरे मनुष्यसे या अभ्याम्य अचे. किसी प्रकारका विरोध नहीं पाया जाता। तन और चेतन भावोंसे भी स्वतन्त्र है और यह
बौद्ध-दर्शनके निरात्मवादक प्रति आक्रमण संसार चिदचित् अगणितभावोंसे परिपूर्ण है, तो और आत्माको अनन्त सत्ताको स्वीकार करनेके उसके इस सिद्धान्तको युक्तिहीन नहीं कहा जा कारण ही जैनगत और वेदान्तमत में कोई भेद सकता, हम भी यही कहना चाहते हैं कि ऐसे नहीं जान पड़ता, फिर भी ये दोनों एक नहीं है। सिमा
सिद्धान्त कदापि युक्तिहीन नहीं होसकते, बल्कि वदान्तिक जीवात्माकी सत्ताको केवल स्वीकार ही संसारके अधिकांश मनुष्य इस प्रकारकं अनुभवनहीं करते, बल्कि दर्शन जगतमें वे और भी कुछ गम्य सुयोग्य सिद्धान्तों को ही ग्रहण किया करते आगे बढ़कर निर्भीकरूपमें जीवात्मा और परमात्मा हैं, इसीलिये प्रायः वेदान्तमतको बहुतसे लोग का अभेद प्रचार किया करते हैं। वेदान्तमतके ग्रहण नहीं करना चाहते । अनुसार यह चिदचिन्मय विश्व उसी एक और कपिलके प्रसिद्ध सांख्यदर्शनकं मनवादका भी अद्वितीय सत्ताका विकासमात्र है। "मैं," "वह" विचार यहाँ करना आवश्यक है । वेदान्तकी तरह